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अखण्ड बना रहा। किवाड़ खुले ही पड़े थे। अकेली पचलदेवी दीप की बगल में बैठी थी। प्रांगण में उसकी छाया पड़ रही थी। वह बहुत बड़ी थी। अँधेरा छा गया। सर्वत्र दीया जलाने का काम भी शुरू नहीं हुआ था। एक गम्भीर मौन राजमहल में छाया रहा।
तभी एकाएक चिल्लाहट सुन पड़ी। आवाज जोर की थी। उसे सुन घबड़ाती हुई पद्मलदेवी प्रांगण में भागी-भागी आयी। देखती क्या है, खुली आँखें, मुँह पर हाथ रखे डर के मारे थर-थर काँपती राजकुमारी हरि लदेची समाधी : नै सो पाते आलिंगन में लेकर पूछा, "क्या हुआ बेटी?''
हरियलदेवी का सेना राजमहल में गूंज गया था। एक-एककर सब दौड़ आये। "क्या हुआ बेटी?" पद्मलदेवी ने फिर पूछा।
“यहाँ, दरवाजे के पास...इतना बड़ा...काला...यहाँ से वहाँ तक...डर...मुझे डर..." हरियलदेवी ने रुक-रुककर कहा।
माचिकब्जे ने बच्ची को देखा। शान्तला के पास आयीं, धीरे से बोली, "यह क्या अम्माजी, बच्ची की ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया? कल की साजसजावट ज्यों की त्यों है!"
यह बात सुनकर शान्तलदेवी धक से रह गयीं। पास आकर पद्मलदेवी की गोद से काँपती हुई बच्ची को अपनी गोद में ले लिया और प्यार से पूछा, "आ, बेटी! क्या हुआ?' बच्ची को अपने अंक में लेने के लिए उठाया तो देखती क्या हैं कि बच्ची का सारा शरीर तप रहा है। उन्होंने कहा, "कोई जल्दी भागकर जाओ, पण्डितजी को बुला लाओ।" तुरन्त बच्ची को साथ लेकर अपने शयनकक्ष में गयीं। उसे पलंग पर लिटाया। उनके पीछे बिट्टिदेव आ गये, माचिकन्ये और पद्मलदेवी भी आ गयीं।
सिर पर हाथ सहलाती हुई माँ की तरफ मुड़कर हरियलदेवी बोली, "माँ, भूख लगी है।"
तुरन्त दूध आ गया, बालिका ने चार घूट दूध पिया। मगर पीते ही उबकाई के साथ उगल दिया।
माचिकब्धे ने कहा, "बिटिया को नजर लग गयी होगी, डीठ उतार दें तो अच्छा रहेगा।" उन्हें पिछले दिन डीठ उतारने की बात याद नहीं रही।
___ किसी के उत्तर की प्रतीक्षा न कर स्वयं डीठ उतारी और बालिका के माथे पर रक्षा टीका लगाया।
पण्डितजी आये। एक पुड़िया निकाली और शहद के साथ मिलाकर चटा दी। फिर बोले, "घबडाने की कोई जरूरत नहीं। बच्ची को बुखार कब से है?"
शान्तलदेवी ने गम्भीर होकर कहा, "बुखार कब से है सो तो मालूम नहीं।
48 :: पट्टमहादेवी शान्तल्पा : भाग तीन