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________________ "इतना सब होने पर भी एक भी चित्र में उनके चेहरे का साप्य नहीं दिखाई देता?" "सो भी उनकी ही इच्छा से। इन भाव-भंगियों में कुछ दूसरे अनगअलग मुख हों, यही उनकी इच्छा थी।" "वह क्यों? उनका ही चेहरा होता तो क्या होता?" "एकरूपता रहती। वैविध्य न होता।" "कम-से-कम एक में उनका चेहरा रूपित होता तो अच्छा होता न?" "ये सब कल्पित मूर्तियाँ हैं, इस भावना को जाग्रत करना हो तो व्यक्ति को पहचानने की-सी निर्मित नहीं होनी चाहिए। यहाँ भाव-भंगियों की ही प्रधानता होना चाहिए, इन भंगिमाओं को देनेवाले व्यक्ति 'प्रधान' नहीं।" "ये सब नये विचार हैं। ये विचार हमारे मस्तिष्क में अभी ठहर नहीं पाते।" "ऐसा कुछ नहीं। आपको इस क्षेत्र में मन लगाने का अवसर नहीं मिला है, इसलिए ऐसा हुआ है। यदि आप चाहें तो समझने को शांक्त आप में है।" "आपको कैसे पता?" "आपकी स्मरणशक्ति अच्छी है। आपमें वीक्षक-दृष्टि और प्रवृत्ति जाग्रत स्थिति में हैं। इसीलिए जिस चित्र को देखा और जिस प्रस्तर प्रतिमा को देखा, उन दोनों में रहनेवाले अन्तर को आप पहचान सकी हैं।" "वह अचानक सूझा होगा।" "नहीं। बात यह है कि आपके जाग्नत मन के साथ एक सुप्त मन भी है जो जाग्रत होकर आपके न चाहने पर भी, वह अपना कार्य कर देता है।" "यह सब मेरी समझ से बाहर है। जब वेदान्ती लोग आगृति, स्वप्न, सुषुप्ति कहते हैं, तब अन्त; चक्षु, सुप्त मन, आदि को कहते सुना है। परन्तु यह सब समझ में नहीं आया है।" "वेदान्ती और कलाराधक इन दोनों में कोई अन्तर नहीं। दोनों एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं।" "यह बात भी मेरी समझ में नहीं आती।" ___"पट्टमहादेवीजी जब पढ़ाती हैं, तब सुनने का अवसर प्राप्त करें, तो वे इन बातों को मुझसे भी अच्छा समझा सकती हैं।" "हाँ, पट्टमहादेवीजी अभी नहीं आयी हैं, मैं राजमहल जाती हूँ।" कहती हुई, उसने चट्टला की ओर देखा। उसने कहा-"पालकी तैयार है।" "कलाकार एक तरह से पागल होते हैं, वह पागलपन उनको अच्छा लगता 440 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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