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को अपने ही हाथों से मैंने बरबाद कर लिया–महान् पाप किया। अब शेष लोगों के जीवन को सुखमय बनाकर कृत पाप का प्रायश्चित्त करूँगी। इतनी देर से ही सही अकल तो आ गयी न? यही काफी है। यही सपझकर कि सब मुझसे द्वेष ही करते हैं, मैं अपनी शान्ति खो बैठी थी। मेरे सोचने और वस्तु-स्थिति–इन दोनों में कितना अन्तर है, यह अब समझ में आ रहा है। मेरे हित की दृष्टि से कही बातें सुनकर भी मैंने जहर ही ठगला। ऐसी मुझ पापिन को इतना स्नेह भरा स्वागत मिला, यह नया व्यवहार समझ लूँ तो इसमें आश्चर्य ही लगता है। पहले भी वही स्नेह था, मेरी ही उसे पहचानने की शक्ति खो गयी थी-यों कहना अधिक ठीक होगा। आपके आदेश का अक्षर-अक्षर पालन करूँगी। पट्टमहादेवी के स्वभाव और गुणों से परिचित होने पर भी मैंने उन्हें न समझने की बड़ी भूल की। अब पूर्णरूप से समझ गयी। मैं इसका ख्याल रखेंगी कि उन्हें किसी तरह का दुःख-दर्द न हो। आपने जो कुछ कहा. वह सब मैं समझ गयी। आप निश्चिन्त रहें।"
"इस विषय में तुम मुझसे भी अधिक धीरज के साथ बरत सकती हो, यह मैं जानती हूँ। प्रभु की छाया में मेरे विकास का ढंग ही अलग है। कई ऐसे मौके भी आये जब कि मुझे कहना था, तब भी मैं न कहकर दुःख स्वयं भुगतती रही। तुमने भरोसा दिया, मैं अब निश्चिन्त हूँ। मैं किसी बात को भी छिपा रखना नहीं चाहती। अन्तिम साँस लेने के पूर्व तुमको देख लू, मात्र इस कुतूहल से नहीं बुलवाया। ऐसी बात मैंने कही इससे गुस्सा मत होना। बुलवा भेजते समय जो कुतूहल और प्रेम रहा वह अब मुझमें ज्यादा हो गया है, यह भी उतना ही सत्य है। तुमको बुलवाने में मेरा इतना ही स्वार्थ है। मुझे ऐसा लगा कि उस कार्य को साधने के लिए तुम ही समर्थ हो। इसलिए हठधर्मिता का दिखावा करके तुमको बुलवाया। मैं किसी बात को अपने मन में रखकर नहीं मरना चाहती। मैंने सदा से अपनी इच्छा को प्रधानता न देकर, दूसरों की इच्छा को ही मुख्य मानकर, उसी तरह जीवन-यापन किया है। इसी वजह से तुम मेरी बड़ी बहू बनी। अगर मैं स्वार्थी होती तो किसी भी तरह से तुम मेरी बहू नहीं बन सकती थीं। अपने स्वार्थ को अप्रधान मानने का एक ही कारण है। राजघराने में एकता बनी रहे। मेरी हालत से तुम्हारी हालत अधिक अच्छी है। अब तुममें किसी भी तरह का स्वार्थ नहीं है, न हो हो सकता है। इसलिए अब तुम्हें परोपकार बुद्धि से अपना जीवन गुजारना चाहिए। अब मुझसे ज्यादा न्याय की अपेक्षा तुमसे की जानी चाहिए। सबकी माता बनकर तुम अब राजमहल में सन्तोष की धारा बहाने का मूलस्रोत बनो।"
"अपने सम्पूर्ण जीवन को इसके लिए धरोहर बना रखती हूँ।"
पट्टपहादेवी शान्तल! : भाग तीन :: 43