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________________ "महामातुश्री'' रेविमय्या ने धीमी आवाज में पूछा। "कुछ सुधर रही हैं।" शान्तलदेवी बोली। "सब मिल रहे हैं। भगवान् उन्हें कुछ और समय तक सुरक्षित और जीवित रखें तो कितना अच्छा होगा!" रेविमय्या ने कहा। ___ "सबकी यही कामना है । सन्निधान तो भगवान् से सदा यही प्रार्थना करते रहते हैं।" "महारानी परालदेवी जी..." "आ गर्यो। अब वे ही महामातुश्री की सेवा में कटिबद्ध होकर लगी हैं।" "सच?" "तब तो महामातृश्री चेतकर स्वस्थ हो जाएँगी। उनके अकेली हो जाने पर वे बहुत चिन्तित हो गयी थीं। सबके साथ उनको देखने पर उनकी चिन्ता अब दूर हो आएगी।" "तुम्हारा कहना सत्य है। उनके कण्ठ से आवाज ही नहीं निकलती थी, अब धीमी-सी निकलने लगी है। कल तक पहले की भाँति में बातचीत भी करने लग जाएँ तो इसमें आश्चर्य नहीं।" "भगवान की कृपा।" "ठीक है। अब जाओ। तुम कुछ भी चिन्ता न करो।" "चिन्ता, वह तो मुझसे छूटेगी ही नहीं। जब तक साँस है तब तक बच्चे, माती-पोतों के समय तक किसी-न-किसी की चिन्ता तो रहेगी ही, छूटे कैसे? यह सारा जीवन ही पोय्सल वंश के लिए धरोहर है।" "ठीक है। अब जाओ।" वह झुककर प्रणाम कर वहाँ से चला गया। जगदल सोमनाथ पण्डित की दवा ने वास्तव में बहुत प्रभावशाली काम किया था। दूसरे दिन नयी चेतना एचलदेवी में आ गयी और के स्पष्ट बोलने लगीं। पद्यलदेवी की सेवा को सन्तोष के साथ स्वीकार भी किया। उसके आने पर सन्तोष भी व्यक्त किया। जब वे दो ही एकान्त में रहीं तो उससे कुछ बातें कहीं, "अब आप लोगों को ऐसा लगता होगा कि मेरा स्वास्थ्य सुधर गया है। मगर यह बुझने वाले दीपक का प्रकाश ही समझो। मेरे बाद तुम इस राजघराने में बड़ी स्त्री हो। तुमसे मार्गदर्शन मिलना चाहिए। बड़ी को अपने बड़प्पन को संयम से साधना होगा, बनाये रखना होगा। मुंह पर ताला लगाना होगा, आँखें खोलकर सब देखना होगा। कानों से सुनकर समझना होगा। कुछ बोले भी तो ऐसा बोले कि मानो मोती झड़ें। और बात भी प्रेम-सनी होनी चाहिए। यहाँ तुम्हारे लिए कोई नया नहीं।" 'मेरे लिए कोई नया नहीं। अन्न मुझे ही नयी बनना होगा। अपने जीवन 42 :: पमहादेवी शान्तला : भाग तो
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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