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"अभी कितनी जगह और खाली पड़ी है? और फिर पट्टमहादेवी का विशेष स्थान।"
"ऐसा नहीं । तुम नहीं समझती हो, मेरे सारे हृदय में पट्टमहादेवी हो हैं। सबके लिए बराबरी का स्थान बना देनेवाली वे ही हैं, देनेवाली भी।"
"अर्थात, व शेष हम सबसे उच्चस्तरीय हैं, है न?"
"क्या करें। पहले जन्मनेवाली बड़ी दीदी, बाद को जन्मनेवाली छोटी बहन। छोटी बहन बड़ौदो कैसे पा सकती है : हौं, जग तुम अपने पिता को नौकर की तरह मानती हो?"
"सो कैसे होगा? पिता पिता हैं। बेटी बेटी ही।"
"यहाँ भी वैसे ही। एक माँ-बाप के दस बच्चे हों तो उनमें माँ-बाप कोई अन्तर मानते हैं क्या?"
"नहीं"
"वही बात यहाँ भी लागू है। पट्टमहादेवी को प्रथम स्थान, शेष सबको बराबरो का स्थान, उनकी बहनों की तरह। इसीलिए तुम्हें उस गौरव स्थान का बिचार कर पट्टमहादेवी के साथ व्यवहार करना चाहिए। कभी भी तुम्हें उनको अपने बराबर नहीं समझना चाहिए। अगर वे तुम्हें समान गौरव देती हैं तो वह उनकी उदारता है।"
"माना। परन्तु एक बात सन्निधान मुझे स्पष्ट करेंगे। स्थपति और पट्टमहादेवी दोनों को इस तरह एकान्त में रहने देना ठीक है? पट्टमहादेवीजी को देख-रेख की व्यवस्था होती तो अच्छा था न?"
"बताओ तो! तुम तिरुवरंगदास को बेटी हो?" "नहीं!" "तुम्हारे माँ-बाप कौन हैं?" "ज्ञात नहीं।"
"समझ लो, वे यदि तुमसे शादी कर लेना चाहते या एक सुन्दर लड़की कहीं मिल गयी मानकर, तुम्हारी सुन्दरता पर मोहित हो, तुम्हें अपने सुख का साधन बना लेते तो?"
"कभी ऐसा हो सकता है ? वे वैसे व्यक्ति नहीं। मुझको औरस पुत्री की तरह उन्होंने पाला है।"
"दुनिया में ऐसे बहुत-से लोग और भी हैं। इसलिए तुम्हें अविश्वास की दृष्टि से किसी को नहीं देखना चाहिए।"
"अविश्वास का प्रश्न नहीं। सावधानी बरतने की बात है।' "वह भी कोई कारण नहीं। फिर भी, दुनिया है न; उसमें आधा-परभा
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 411