SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "श्री आचार्यजी की कृपा होने के कारण, तुम राजमहल की गरिमा के अनुकूल अपने मानस को उदात्त कर सकोगी, यही सोचकर विवाह किया था। सो भी हमारी पट्टमहादेवी और रानियों के स्वीकार करने पर।" "यदि उनकी स्वीकृति नहीं मिलती तो सन्निधान मुझसे विवाह नहीं करते?" "हाँ, हम पट्टमहादेवी की इच्छा के विरुद्ध कुछ नहीं करते।" "सन्निधान की इच्छा-अनिच्छाओं से भी अधिक पट्टमहादेवी की इच्छाअनिच्छाएँ प्रमुख हैं?" "यह पारस्परिक है।" "यहां रानी का क्या स्थान है। "यहाँ सबके लिए वैयक्तिक रूप से समान स्थान है। प्रत्येक राजमहल की रीति-नीतियों की सीमा में स्वतन्त्र हैं। अब तक कोई स्वेच्छा प्रवृत्त नहीं हुए हैं। किसी ने किसी को शंका की दृष्टि से नहीं देखा। हम सब एक परिवार बनकर रह रहे हैं। आगे भी ऐसे ही रहना होगा। तुम इस परिवार में नयी आयी हो। तुमको भी उसी के अनुसार सबके साथ व्यवहार करना होगा। हमारे पहरेदार रेविमय्या से तुमको पता चलेगा कि राजमहल में कैसे रहना चाहिए।" "मैं रानी हूँ। एक पहरेदार से मुझे सीखना होगा?" "पट्टमहादेवी ने ही उसे योग्य और विश्वसनीय माना है।" "इसलिए हमें भी ऐसा मानना होगा?" "व्यक्ति को गुण से पहचानना चाहिए। मात्र स्थान-पद आदि की दृष्टि से जो व्यक्ति को तौलते हैं, वे जीवन में कुछ भी नहीं साध सकते । रानी बम्मलदेवी रानी राजलदेवी दोनों अलग-अलग वंश की हैं। दोनों राजवंश की जन्मी होने पर भी दूर के किसी आप्त जन के साथ सगी बहनों की तरह बड़ी हुई और पोय्सल रानियाँ बनीं। एक साधारण हेग्गड़ेजी की बेटी हमारी पट्टमहादेवी ने अपने आदर्शप्राय गुणों के कारण महादण्डनायकजी की बेटियों से सहस्रगुणा उत्तम मानी जाकर महामातृश्री तथा हमारे दादा विनयादित्यजी की प्रेमपात्र बनी और हमारे हृदय को जीता। इधर श्रीवैष्णव ब्राह्मण के आश्रम में पली होने पर भी तुम्हारे पालक पिता ने तुमको रानी बनने का अवसर जुटाया। वे बड़े धर्मभीरु हैं, उन्होंने यह सोचकर, कि तुम उन जैसे उत्तम कुल की नहीं हो, तुम्हें हमको सौंपा है। यदि उनकी औरस पुत्री हुई होती तो सम्भवतः इस विवाह के लिए स्वीकृति नहीं देते, और इस विवाह के लिए प्रयास नहीं करते। किसी दूसरे की पत्नी बनने से रानी होने में अधिक हित की सम्भावना समझ सकने की बुद्धिमत्ता तुम्हारे पिता तिरुवरंगदास की है। तुम अभी छोटी हो, तुम्हें सुख मिले इसी विचार से पट्टमहादेवी ने काय-दीक्षाव्रत का पालन कर रखा है। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 409
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy