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________________ और बात है, उसे सदा स्मरण रखो। धर्म की बात को लेकर कभी किसी को किसी भी तरह से दुःखी न करना। हम विष्णु की आराधना करके जिसे साध सकते हैं, वह सब जिनेन्द्र की आराधना करके पट्टमहादेवी साध सकेंगी। भगवान् पर विश्वास रखना और पट्टमहादेवी पर विश्वास रखना दोनों एक ही बात हैं। वे तुम्हें बेटी से अधिक प्यार करेंगी, सौत की दृष्टि से कभी नहीं देखेंगी। वे इस सम्पूर्ण राज्य के लिए मातृतुल्य हैं। उनके आश्रय में रहकर तुम्हें विकास करना होगा। जितना आदर और गौरव तुम हमपर रखती हो, उतना ही आदर और गौरव तुम्हें पमहादेवी पर रखना होगा। उन्हें दिया गया दुःख या उनके प्रति अपचार एक तरह मेरे प्रति ही अपचार करने, दुःख देने जैसा होगा। समझीं?'' आचार्यजी ने पट्टमहादेवीजी के विषय में जो कहा उसे रानी लक्ष्मीदेवी चकित होकर सुनती रही। अब तक राजमहल के नौकर-चाकरों एवं अधिकारी वर्ग से पट्टमहादेवीजी के बारे में प्रशंसा की बातें सुनी थीं। स्वयं महाराज के मुंह से भी सुनी थीं। परन्तु इन सबकी बातों का उसके मन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था। वह केवल पट्टमहादेवी के प्रति सद्भावना रखती थी। दूसरे सभी लोगों की प्रशंसोक्तियों को केवल कर्मचारी वर्ग की सहज प्रशंसा ही समझती रही। परन्तु, अब जब स्वयं आचार्यजी ने ही पट्टमहादेवीजी के बारे में जो बातें कहीं, उन्हें सुनकर वह चकित रह गयी। वह कुछ कह नहीं पायी। एक-दो क्षण चुप रह आचार्यजी ने पूछा, "तुम्हारे पिताजी कुशल से हैं न?" __ "कुशल हैं। वे भी साथ ही यहाँ तक आना चाहते थे। मुझसे कहा भी था।" रानी लक्ष्मीदेवी ने कहा। __ "फिर क्यों नहीं आये?" आचार्यजी ने पूछा। "हमारी यात्रा कब होगी, यह मुझे पहले मालूम न था। रात में महाराज ने कहा। महाराज ने यह भी कहा कि पास रहने के कारण जब चाहे तब उनको यहाँ आने-जाने की सुविधा तो रहती ही है। इसलिए हमारे प्रस्थान करने की सूचना उन्हें नहीं दी गयी।" लक्ष्मीदेवी ने कहा। आचार्यजी ने तुरन्त कुछ नहीं कहा। उन्होंने बिट्टिदेव की ओर देखा। वह गम्भीर ही बैठे रहे। बाद में सुरिंगेय नागिदेवण्णा की ओर देखा। उन्हें राजमहल में क्या हुआ था, सो मालूम नहीं था। यह बात सुन उनका चेहरा कुछ फीका पड़ गया। आचार्य ने कहा, "महाराज को इस तरह से आज्ञा देना सकारण ही होना चाहिए।" बिट्टिदेव ने कहा, "वेलापुरी के विजयनारायण के मन्दिर निर्माण का कार्य समाप्तप्राय है। वहीं मूर्ति-प्रतिष्ठा के उत्सव के लिए श्रीआचार्यजी अवश्य पधारें। वहाँ जाने के बाद वहाँ की स्थिति के अनुसार निवेदन भिजवाऊँगा।" "हमारी ओर से महाराज और रानीजी रहेंगी न?" 396 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग हीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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