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________________ वहाँ भव्य स्वागत की तैयारियाँ हुई थीं। आचार्यजी ने अपने विशिष्ट निवास में दैनिक अर्चन से विशेष पूजा की। राजदम्पती को आचार्यजी के हाथ से ही तीर्थ और प्रसाद प्राप्त हुआ। आण्डान सब कार्यों की देखभाल के काम में लगा रहा और अच्चान रसोई में मिष्टान्न की तैयारी में। उसे नागिदेवण्णा के खान-पान की रुचि का परिचय तो था ही। राजमहल के भोजन से परिचित नागिदेवण्णा को रुचि के अनुसार खाना बने तो महाराज को भी रुचेगा, यह उसकी धारणा थी। रानीजी की रुचि के बारे में तो परिचित था ही। बहुत ही मजेदार भोजन हुआ। इसके बाद राजदम्पती का आचार्यजी से आप्त सन्दर्शन भी सम्पन्न हुआ। कुशल-प्रश्न के बाद आचार्यजी ने अपनी गम्भीर वाणी में कहा, "महाराज ! यह कन्या एक तरह से हमारे आश्रय में पली-बढ़ी है। उसे केवल धर्म-श्रद्धा का पालन करना ही मालूम है; उसे अन्य किसी भी बात का ज्ञान नहीं है। रानी बनने योग्य सारा कौशल उसमें है, यह हम नहीं मानते। इतना कहा जा सकता है कि सूक्ष्मग्राही बुद्धिमत्ता उसमें है। उसका हस्तलक्षण बड़ा प्रबल है। इसीलिए उस पर महाराज की कृपा हुई। वह एक बलवान ध्येयवादी राजपरिवार की रानी बनी, हमें इसका एक आश्चर्यजनक सन्तोष है। आपकी पट्टमहादेवी का मन कितना स्वच्छ और निर्मल है, यह हम सुन चुके हैं। एक साधारण हेग्गड़े के परिवार में को लेकर भी अमरिशुद्ध व्यवहार से आपके पितामह और माता-पिता के प्रेम का पात्र बनी, इन सब बातों को हम जान चुके हैं। एक साधारण नौकर से लेकर महाराज सक सभी को समान प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखती हैं। उनकी कार्य-दक्षता, ध्यवहार-कौशल आदि सभी बातों से हम परिचित हैं। उन्होंने अपना सारा भाग्य आपको समर्पित किया है। उन्होंने आपके ही सुख के लिए कितना महान् त्याग किया है और कर सकेंगी, यह सब हम जानते हैं। विद्वेष में प्रेम और विष में अमृत उपजाने की क्षमता उनमें है। तो फिर आपके किसी भी काम से उन्हें दुःख न हो, यह बात इस रानी को भी मालूम होना चाहिए। लक्ष्मी! तुम रानी बनीं। तुम्हारा भाग्य ही ऐसा था। इस तरह का भाग्य कभी-कभी विपर्यास का निमित्त भी होता है। इस तरह के व्यवहार के लिए अवकाश न देकर, उस महामाता पट्टमहादेवी ने जिस उदारता से तुम्हें अपनी बहन के रूप में स्वीकार किया है, उसी तरह तुम्हें भी उनकी सुख-शान्ति की कामना करती हुई किसी भी तरह की विरसता को स्थान न देकर, अपने जीवन को राजपरिवार की एकता और प्रगति हेतु समर्पित कर देना चाहिए। अपनी स्वार्थ-साधना के लिए महाराज को कभी मन्दिग्धावस्था में न डालना। इस पोयसल राज्य ने महाराज और पट्टमहादेवी के निर्मल बुद्धि-मिलन के फलस्वरूप उपजी महानता पायी है। ऐसी साधना के लिए तुम्हें भी सहयोग देना होगा। एक पष्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन :: 395
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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