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________________ "तो यही होगा न कि मैंने गिड़गिड़ाकर मांगा।" "अब आप जो कर रहे हैं, वह वही है न?" "क्या कहा? मैं गिड़गिड़ा रहा हूँ? अच्छा हुआ। इतने प्रेम से तुम्हें पाला-पोसा और रानी बनाया। ऐसे तुम्हारे बाप को अब तुम्हारे सामने हाथ पसारना होगा?" "पिताजी, आपका यह वाक्चातुर्य मेरी समझ में नहीं आता। आपने माँगा. मैंने हाँ कहा। कहा कि महाराज से कहूँगी। इसी को आपने गिड़गिड़ाना कहा। मैंने माना।" "इसका तात्पर्य तो यही हुआ न कि तुम्हें भी मेरा वहाँ जाना प्रिय नहीं।" "मुझे भी इसके क्या माने? किसी अन्य को भी आपका वहाँ जाना प्रिय नहीं है क्या?' "दूसरों की बात मैंने नहीं कही। अभी यह तो हुआ न कि तुम्हें प्रिय नहीं। खैर, छोड़ो इस बात को। अच्छा अब मैं चलता हूँ।" कहकर तिरुवरंगदास उठ खड़ा हुआ। "यों असन्तुष्ट होकर चले जाएँगे तो मुझसे सहज रहा जाएगा पिताजी? यह बताइए कि इस विषय को महाराज के समक्ष कैसे प्रस्तुत करूँ?" को मताऊँ? सो कर लो क मैं रानी को ब ता रहा हूँ।" "मैं जब कहूँ तब न?" "तो मेरा वहाँ जाना तुम्हें स्वीकार है न?" "अस्वीकार है, यह मैं किस मुंह से कह सकती हूँ ?" "यदि तुम्हें स्वीकार है तो बताओ कि मेरे पिताजी चाहते हैं कि वे, जहाँ मैं रहँ, वहाँ रहें। उनकी इस अभिलाषा को पूर्ण करें। वे मानेंगे। उन्हें भी यह मालूम है कि तुम्हारे लिए मुझको छोड़ दूसरा कोई अपना नहीं।" "ठीक है पिताजी, वैसा ही करूंगी।" धर्मदर्शी सन्तुष्ट हो चला गया। उसी दिन रात को रानी लक्ष्मीदेवी ने महाराज को जिस शय्या पर सन्तुष्ट किया था, उसी पर यह संकेत किया। पुरुष को दैहिक सुख देकर ही स्त्री अपनी इच्छा को पूर्ण किया करती है, लक्ष्मीदेवी इस बात से पहले ही परिचित हो गयी थी। किसी गुरु ने उसे यह पाठ पढ़ाया है अथवा यह स्त्री की अपनी प्रतिभा-जन्य-विद्या है, कौन जाने ? परन्तु बिट्टिदेव ने इसका उत्तर तुरन्त नहीं दिया। "क्या मेरी इच्छा अनुचित है?" "हमने ऐसा तो नहीं कहा।" "तो स्वीकृति...?" 388 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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