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________________ "आप चारुकीर्ति पण्डितजी से परिचित थे?" "सुना है, देखा नहीं । मैं यादवपुरी का हूँ। मुझे राजधानी तक पहुँचने का मौका ही नहीं मिला था। सन्निधान के यहाँ आकर मुकाम करने के बाद ही मेरा रामजहल से परिचय हुआ। बल्लाल महाराज जब राज्य कर रहे थे तभी मेरा वर्तमान सन्निधान से परिचय हुआ था। यों तो पट्टमहादेवी और उनके वात्सल्य के कारण मुझे इस पद का एक अवसर मिला। पोय्यल राजवंश की सेवा करना ही एक सौभाग्य की बात है मेरे लिए। मेरा जन्म सफल हुआ। महामातृश्री के यहाँ पधारने के कारण सम्पूर्ण राजपरिवार को देखने का सौभाग्य मुझे मिला। महारानीजी का यहाँ पधारना सबके लिए आनन्द का विषय है। पट्टमहादेवीजी तो आपके बारे में बहुत प्रेम रखती हैं। अभी हाल में युद्ध के समय सन्निधान के जख्मी हो जाने पर जब उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया तो वैसे ही बातों ही बातों में मैंने कहा, 'पट्टमहादेवीजी पति पर जितना प्रेम रखती हैं इतना गहरा प्रेम कोई और स्त्री अपने पति पर नहीं रख सकती।' तब उन्होंने क्या कहा, जानती हैं?" "क्या कहा?" "कहने लगी, 'पण्डितजी, पत्नी का पति पर प्रेम रखना तो एक सहज विषय है। अपने सौमांगल्य के कारण अभी जीवित हैं, समझकर सभी पति की पूजा करती हैं । परन्तु स्वास्थ महाराज बल्लालजी की पट्टमहिनी, दीदी पद्मलदेवीजी के पतिप्रेम को आप नहीं जानते । मालूम होने पर आपको आश्चर्य होगा। पति देव को बहुत छोटी उम्र में उन्होंने खो दिया है। वे स्वर्गस्थ महाराज को छोटी उम्र से ही प्रेम करती आयी थीं। उनके लिए वे सब कुछ त्याग करने को तैयार थीं। उन्हें मैं जितना समझती हूँ उतना दूसरा कोई नहीं समझता। विधि का विधान ही अन्धा है। विधि ने उन्हें बचाया नहीं। काश, वे होते तो बात कुछ और ही होती! हम किसी भी विशेष जिम्मेदारी या विधि-विधान के बन्धन में न पड़कर सिंहासन की सेवा करते हुए सामान्य प्रजा की तरह रह सकते थे। हम इस पद पर हैं, इसका हमें कोई हर्ष नहीं। केवल वंश -गौरव और राष्ट्र-गौरव की रक्षा के निमित्त एवं हम पर विश्वास रखनेवाली प्रजा को सुखी और निश्चिन्तता में रखने के ख्याल से. हम इस जिम्मेदारी का निर्वहण कर रहे हैं। परन्तु इस सबके लिए सच्ची अधिकारिणी हमारी महारानी हैं, जिनका अखण्ड प्रेम पहले राज करनेवाले महाराज पर रहा। इसी वजह से कि जब वे ही न रहे तब हमें इस पद-प्रतिष्ठा, गौरव, सुख की क्या जरूरत है, कुछ भी नहीं चाहिए-यही मानकर संन्यासिनी की तरह दूर रहने लगी हैं, उन्होंने मुझसे पूछा-'आप ही बताइए यह साधारण स्त्रियों से सम्भव हो सकता है?' उनके कहे अनुसार आपके जैसे संयम की साधना आसान नहीं। आशा-आकांक्षाओं का त्याग भला कौन कर सकता है ? लगता है कि त्याग करना पोसल वंश का एक महान 38 :: पद्रमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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