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________________ नहीं चलूँ तो मेरे इस पद की मर्यादा ही क्या है?" "ठीक है, अब मैं नहीं बोलँगा।" "अच्छा हो, मेरे और मेरी सन्तान के लिए तुम्हारा प्रेम इसी तरह बराबर बना "इस रेविषयी का जीवन आप और सन्तान के लिए सदा-सदा के लिए अर्पित है। इस सम्बन्ध में तो सोचना ही नहीं चाहिए।" "बहुत है यही। तुम्हें यादवपुरी में आये कितना समय हुआ?" "दो-तीन घण्टे हए होंगे।" "अब हमारी याद आयी?" "केवल देख लेना मात्र मेरे लिए पर्याप्त नहीं। एकान्त में मुक्त मन से बात करनी थी इसलिए प्रतीक्षा करना अनिवार्य था, दूसरा चारा नहीं था। मिलने में विलम्ब के लिए क्षमा करें।" "अच्छा यह सब रहने दो। बच्चों से मिले?" "हम सब अभी तक उद्यान में ही तो थे। उनका ही मन बहला रहा था।" "अच्छा किया। उदयादित्य अरस जी कहाँ हैं ?" "कल की व्यवस्था में लगे हैं।" "लगता है सन्निधान को मना लिया है।" "आपकी स्वीकृति के बाद सभी की क्या आवश्यकता थी?" "किसी के भी मन में इस विषय में सन्देह न रहे। मुक्त मन से विचारविनिमय करके निर्णय हो जाय तो यह विषय किसी के मन में रहकर कष्ट नहीं देगा। इसलिए यह सभा होनी ही चाहिए।" "तो क्या यह पट्टमहादेवी की सलाह है?" "ऐसा कुछ नहीं है। क्या मुझसे यह सब हो सकता है?" "ठीक है। परन्तु एक पुरानी बात याद आ रही है। तब क्या हुआ था सो शायद पट्टमहादेवी को पता नहीं होगा।" ''कब?" "बड़े महाराज बिनयादित्य ने प्रभु युवराज एरेयंग प्रभु को पट्टाभिषिक्त करने की इच्छा प्रकट कर निर्णय के लिए सभा बुलवायी। उस सभा की समाप्ति ने यहुतसे लोगों के मनों में कटुता भर दी।" "यह बात मुझे बाद में पता लगी। सभी प्रसंगों में एक ही तरह का परिणाम होगा-ऐसा नहीं सोच सकते रेविमय्या! और फिर जैसी ईश्वरेच्छा होगी, वैसा हो होगा।" "ठीक।" 358 :: पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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