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पौन ही उपाहार चला और समाप्त भी हुआ। विट्टिदेव पहले चले गये. बाद में उदयादित्य वहाँ से उनके यहाँ जा पहुंचा।
"बैठो उदय!"
वह खड़ा हो रहा। बिट्टिदेव ने सीधा प्रश्न किया, "तुम्हें भी कुछ असन्तोष हैं क्या?"
उदयादित्य ने कहा, "सन्निधान पट्टमहादेवी को इस तरह पीड़ा पहुँचाएँगे इसकी मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी। क्षमा करें। मैं छोटा हूँ। सलाह देने की योग्यता मुहमें नहीं है। जान्न मी नो लपा से कहे बिना नहीं रह सकता, मैं अपने को धोखा नहीं देना चाहता। सन्निधान सर्वाधिकारी हैं। उनसे कौन कुछ कह सकता है ? फिर भी, हमारे पूर्वज इतने स्वतन्त्र होकर कोई काम नहीं किया करते थे। सन्निधाम भी उन्हीं के मार्ग पर चलें, यही मेरी विनती है। निर्णय जो भी हो, सबकी सम्मति से हो। कल एक मन्त्रालोचना सभा हो। सबकी राय लेकर निर्णय किया जाय।" __ "कल सभी आएँगे। तुम्हारी राय क्या है सो बताओ?"
''इस तरह अलग-अलग राय लेने की पद्धति ही ठीक नहीं। यह विचारविनिमय की रोति नहीं। पट्टमहादेवी से स्वीकृत करवाकर सबको सन्दिग्ध स्थिति में डालना क्या ठीक है ? सन्निधान को सोचना चाहिए।"
"हमने यह तो नहीं कहा कि पट्टमहादेवी की ही राम सबकी हो।"
"नहीं कहा। परन्तु प्रकारान्तर से यही अर्थ होता है। सन्निधान ने मेरी राय माँगी, इसलिए कहे देता हूँ। राजकुमारी स्वस्थ हुई, वह एक चमत्कार था। वह स्थिति ही अलग थी। अब इस धर्मधुरन्धर की बात सन्निधान को नहीं माननी चाहिए।"
"उदय! आज तुम, पता नहीं क्यों, पूर्वाग्रहग्रस्त होकर बातें कर रहे हो। हमने पर्याप्त विचार किया है। इस विवाह से कोई बाधाएँ नहीं खड़ी हो जाएँगी।"
"राज्य निर्वहण का दायित्व रखनेवाले सभी लोगों की वैसी राय हो, तब सन्निधान के लिए भी अच्छा होगा, हमें भी अच्छा होगा। तो कल आलोचना
सभा..."
"तुम ही व्यवस्था करो! जैसा तुमने कहा, तब वह दायित्व हमारे अकेले पर नहीं पड़ेगा।"
"ठीक! तो अब आज्ञा हो' कहकर, प्रणाम कर उदयादित्य वहाँ से चल पड़ा और दूसरे दिन की व्यवस्था में लग गया।
इधर रेविमय्या-पट्टमहादेवी अकेली अपने विश्रान्ति-गृह में, ऐसा समझकर उनके दर्शन के लिए आया।
356 :: पहमलादेवी शान्तला : भाग तीन