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लोगों की रीढ़ की हड्डी ही टूट गयी है-यह कहना पड़ता है। पट्टमहादेवी राज्य के इस भारी रथ का एक अंग अवश्य हैं, पर वही सब कुछ नहीं हैं। पट्टमहादेवी ऐसा नहीं समझतीं कि वही सबकुछ हैं, और उन्हीं की बात अन्तिम है। उन्हें ऐसा अहंकार नहीं। उन्हें ऐसा लगा कि इससे कोई बाधा नहीं होगी। मान लिया। जो समझते हैं कि बाधा है वे उन्मुक्त मन से चर्चा करें।" शान्सलदेवी ने कहा।
"मुझमें साहस है या नहीं, इसे पट्टमहादेवी ही देख लें। सभा बुलाने के लिए कहूँगा। उस मन्त्रालोचन सभा में बताऊँगा, अपनी राय चाहिए।"
"ऐसा करने पर तुम्हारा मन तृप्त होगा। किसी के प्रभाव में आकर एक बार मानकर कल फिर असमंजस में नहीं पड़ना चाहिए।" शान्तलदेवी ने कहा।
राजलदेवी ने भी उदयादित्य की ही तरह राय बतायी।
"तुम दोनों बहनें पहले आपस में विचार-विनिमय कर लो। और एक निर्णय पर पहुँच जाओ। बाद में आगे क्या हो, इस बात पर विचार करेंगे। उदयादित्यरस जी के कहे अनुसार करेंगे तो किसी के भी मन में तरह-तरह से सोचने के लिए जगह ही नहीं रहेगी।" शान्तलदेवी ने कहा।
सब लोग थोड़ी देर तक मौन बैठे रहे।
बाद में शान्तलदेवी ने युद्ध के बारे में बताने के लिए उदयादित्य से कहा। जो कुछ जाना था सो विस्तार के साथ वह बताने लगा। इसी बीच अल्पाहार का बुलावा आ गया। सब उठकर चले गये।
__ वहाँ उदयादित्य और राजलदेवी को देखकर मुस्कुराते हुए बिट्टिदेव ने उनका स्वागत किया और कहा, "बहुत शीघ्र और बड़े वेग से यात्रा करके आये होंगे?"
"राजकार्य होता ही ऐसा है न?" उदयादित्य ने कहा।
उसके कहने के ढंग ने बिट्टिदेव की दृष्टि को उदयादिल्य की ओर आकर्षित किया। उदयादित्य के चेहरे पर जो चिन्ता के भाव थे वे अभी पूरी तौर से दूर नहीं हो सके थे।
'यात्रा में कोई बाधा तो नहीं पड़ी?" कहते हुए बिट्टिदेव ने राजलदेवी की ओर दृष्टि डाली।
वह सिर झुकाये, मौन अपना अल्पाहार ग्रहण करती रही।
बिट्टिदेव को लगा कि इन्हें भी बात का पता लग चुका है। उसी की अभिव्यक्ति हो रही है।
उन्होंने कहा, "उदय! जलपान के बाद तुम्हें अवकाश हो तो हमार अन्तःपुर में आओ।"
"जैसी आज्ञा!'' उदयादित्य ने इतना ही कहा। फिर किसी ने कुछ नहीं
कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 555