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________________ "यहाँ केवल वे ही लोग आते हैं। इसलिए शेष लोगों को बताने से क्या लाभ है?" "तो आशय यह हुआ कि मेरा आना ठीक नहीं हुआ न?" "शान्तं पापं, शान्तं पापं, मैंने यों नहीं कहा न?" "यहाँ आनेवाले केवल आण्डवन के भक्त हैं, कहा न?" "मैं जिनभक्त हूँ।" "तो क्या हुआ? महासन्निधान आपडवन के भक्त हैं। उनकी पट्टमहादेवी अलग, महासन्निधान अलग-इस तरह हम आपकी पृथक् गणना नहीं कर सकते।" "यह व्यक्तिप्रधान निर्णय हुआ। मुझे विषयप्रधान निर्णय चाहिए। मैं पट्टमहादेवी होने पर भी जिनक्तिन हूँ। क्या आपकी इच्छा है कि जिनभक्तों को यहाँ नहीं आना चाहिए?" "घे नहीं आते; यही कहा।" "क्यों नहीं आते हैं?" 'उन्हीं को बताना होगा।" "तो जिनभक्तिन मैं कह सकती हूँ न?" "सन्निधान की बात सदा मान्य रही है।" "सन्निधान को भूल जाइए। मुझे केवल जिनभक्त मात्र मानिए। तब कहिए कि मेरी बात कैसी लगती है; फिर अपनी राय दें। आप यहाँ आनेवालों के वस्त्र, माथे पर का तिलक देखकर उनका आदर करते हैं, यह भेद करने की रीति है। पोयसस राज्य में यह रीति ठीक नहीं।" "जैसी आज्ञा हो वैसा करेंगे। एक बार आचार्यजी से कहलवा दें तो हमें इस विषय में अधिक स्वतन्त्रता मिल जाएगी।" "आचार्यजी को इसमें क्यों घसीटते हैं ? यह मन्दिर किस तरह निर्मित हुआ? किस किस ने इस निर्माणकार्य के लिए आर्थिक सहायता दी, आवश्यक सामग्री का दान किया. श्रमदान किस-किसने किया; इस सबमें किस-किस भगवान् के भक्तों ने मदद की, यह आपको पता है?" "इस तरह विविध रूपों में मदद देनेवाले सभी को हम आण्डवन के ही भक्त मानते हैं।" "परन्तु वे सब आण्डवन के भक्तों का तिलक धारण नहीं करते न? उन लोगों को आप कैसे पहचानते हैं ?।। "भक्तों को पहचानने के लिए बाह्याचार को छोड़ अन्य कोई उपाय नहीं।" 342 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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