________________
लक्ष्मी ने उसके आदेश के अनुसार प्रणाम किया। शान्तलदेवी ने उसका सिर, पीठ सहलायी और कहा, "अच्छा पति मिले और सुन्दर जीबन हो।"
लक्ष्मी वहाँ से उठकर जानेवाली थी। शान्तलदेवी ने कहा, "बैठो!" यह बड़े संकोच के साथ सैंभलकर बैठ गयी। प्रसाद बाँटा गया।
प्रसाद सेवन करते हुए शान्तलदेवी ने पूछा, "नगर की सजावट क्यों हो रही है-आप जानते हैं धर्मदर्शीजी? सुना कि राजमहल का आदेश नहीं है।"
"कल लक्ष्मीनारायण भगवान् की रथ यात्रा है। मंगलकार्य है। देव-दम्पती नगर की परिक्रमा करेंगे। इस अवसर पर घर-घर के लोग भक्ति-भेंट समर्पित करेंगे। इसलिए यह मन्दिर की ओर से अनुरोध हुआ है। इसीलिए यह सब हो रहा है। यह समाचार राजमहल तक नहीं पहुंचा है।"
"इस मन्दिर का कोई काम-काज राजमहल को ज्ञात नहीं होता?"
"राजमहल घाहे तो बताया जा सकता है। फिलहाल हमने कोई ऐसी प्रथा नहीं रखी है। आचार्य के आदेश के अनुसार हम कैंकर्य करने आये हैं।"
"आचार्य का आदेश है कि राजमहल को न बतायें?"
"कभी वे ऐसा कहेंगे? उन्हें पोय्सल राजवंश पर अपार ममता है। ऐसा है तो ये ही सही, सुचना तो देनी ही चाहिए थी न?"
"आचार्य जी ने बताने का आदेश नहीं दिया था।" "तो उन्होंने क्या आदेश दिया है?"
"इस मन्दिर में आनेवाले आण्डवन के भक्तों को उनकी अपेक्षा के अनुसार पूजा-अर्चा करना, उन्हें यहाँ के कैंकर्य की विधि से परिचित करना, और भक्तों को दिन में प्रसाद वितरण करना अर्थात् अन्नदान करना।"
"इस व्यय के लिए धन-संग्रह कैसे करते हैं?" "सचिव नागिदेवण्णाजी राजकोष से धन देते हैं।" "फिर भी राजमहल को समाचार देने की परिपाटी नहीं है?" "सन्निधान इच्छा करें तो भविष्य में सूचना भेजने की व्यवस्था कर सकेंगे।" "राजकोष सचिव नागिदेवपणाजी का अपना कोष नहीं है।" "वह राजघराने का है, यह सबको पता है।"
"वह सार्वजनिक है। राजकोष में धरोहर के रूप में रखा गया है। इसलिए उस धन का विनियोग किस तरह किया जा रहा है, यह बात राजमहल को पता होनी चाहिए और नगर के सभी लोगों को इसकी जानकारी होनी चाहिए।"
"नगर के सभी लोगों को पता है।" "सो कैसे, आप अपने आण्डवन के भक्तों को ही बताएँगे।"
पट्टहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 341