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________________ "संख्या की क्या? जितना चाहिए उससे दुगुना है। परन्तु मेरो इच्छा है कि उनसे भी उत्तम कल्पनाएँ मिलें। मेरे पिता कहा करते थे 'बेटा ! कलाकार की आँखें सदा खुली रहनी चाहिए। एकाग्रता और तन्मयता की साधना द्वारा नेत्र-- शक्ति को बढ़ाते रहना चाहिए। इसके फलस्वरूप जिसे देखेंगे उसे उसी क्षण चित्त में प्रतिबिम्बित कर स्थायी चित्र चित्त- पटल पर बना लेना चाहिए। इस तरह चित्त-पटल पर उत्पन्न चित्र ऐसे होने चाहिए कि पुनः स्मरण करने पर रूप धारण कर सकें। वही वास्तव में सच्चा कलाकार होता है। उसके चित्र एक जैसे न होकर वैविध्य लिये होते हैं। इसलिए आँख शिल्पी के लिए सबसे प्रमुख है।' परन्तु मैंने अपने जीवन के मुख्य समय में इस दृष्टि को बढ़ाया नहीं। वह मन्द पड़ गयी। मैं चाहूँ या न चाहूँ, वह अपना काम पहले करती रहती थी। इधर कुछ समय से बह शक्ति लुप्त हो जाने के कारण नयी कल्पना का उत्पन्न होना कठिन हो रहा है।" स्थपति ने कहा। "इससे हानि किसकी?" शान्तलदेवी ने पूछा। "हानि की चिन्ता ही नहीं। जब जीवन ही बोझ बना है तो हानि की चिन्ता ही क्यों?" "अन्यथा न लें। भगवान को इस सृष्टि में अनन्तता रूप धारण कर खड़ी है। परन्तु सबके लिए मूल्य एक-सा नहीं। और सबके लिए एक-सी मान्यता भी नहीं।" "नहीं। यह उचित नहीं। भगवान् अलग-अलग मोल करने क्यों जाएगा? यह सब हम स्वार्थी मानवों के ही कृत्य हैं।" "हमारे जीवन और मुक्ति के लिए भगवान ही कारण है-इसे माननेवाले सभी को एक-सा फल तो नहीं मिलता?" "उसी को हम कर्मफल कहते हैं।" "तो आपने अपनी वीक्षक-दृष्टि को कम कर लिया, यह आपका कर्म है?" स्थपति ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया। तुरन्त शान्तलदेवी ने कहा, "क्षमा कीजिए, बात दूसरी ओर चली गयी। हम बात कर रहे हैं कला, कलाकार के बारे में। भगवान् की सृष्टि में गोचर होनेवाले भिन्न-भिन्न मूल्यों का इनके साथ सम्बन्ध नहीं है ? मैंने अनेक बार इस कला के बारे में चिन्तन किया है। ध्यान हमारे लिए सायुज्य का एक साधन है, कला दूसरा साधन है परन्तु इसकी रीति व सौन्दर्यानुभूति से। ऐसी सुन्दर कल्पनाओं को रूपित करनेवाले कलाकार का हृदय निर्मम होना चाहिए न? पूर्वाग्रह से दूर रहना चाहिए न?" "ऐसी स्थिति में कलाकार को अपनी क्रिया में प्रवृत्ति लुप्त होना कैसे पमहादेवी शानला : भाग तीन :: 309
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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