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दिन का युद्ध समाप्त हुआ।
युद्ध, दिन-पर-दिन भयंकर होता जा रहा था। दो दिन बाद एक रात दामोदर के पास आडियम का चुलादा प्राया। उसी से उसकी कथा सुनकर चकित होकर आदियम ने पूछा, "अब यह सब नहीं होगा, अब बताओ आगे युद्ध का कार्यक्रम क्या हो?"
"एक दिन की विश्रान्ति मिले तो फिर मेरा जो अपमान हुआ है उसका बदला लूँ।" दामोदर बोला।
उसकी दुर्दशा समझकर आदियम ने उसे स्वीकार कर लिया।
युद्ध चला। पोयसल सेना तलकाडु के दक्षिणी ओर से भी भारी परिमाण में मोर्चा जमाये बैठी रही। आदियम के पास अपने राजा की ओर से नियत समय तक भी सेना नहीं आयी। साथ-साथ उस ओर से रसद भी नहीं पहुँची जिसकी प्रतीक्षा रही। इस तरह आदियम की हालत बिगड़ती गयी। दामोदर ने अपने कधन के अनुसार विश्राम करने के बाद युद्ध का नेतृत्व अपने ऊपर लिया।
उधर पोय्सल युद्ध-शिविर में मायण पहुँच गया और चट्टला को छोड़कर वहाँ से भाग आने तक के सारे समाचार बताये। गंगराज ने कहा, "उसे अकेली छोड़कर तुमको आना नहीं चाहिए था।"
"नहीं, परिस्थिति ऐसी ही थी। हम पकड़े हो गये। हठ करते तो जीवित लौट आना कठिन होता। बन्दी हो जाने के बाद कुछ दिन तक एक भवन में आराम से खाते-पीते रहे।"
"आप लोगों के लिए भवन क्यों?" "हमने आसानी से उनकी शंका को दूर कर दिया।" "ऐसा होता तो तुम दोनों को छोड़ देना चाहिए था?"
"वह अलग बात है। वह दामोदर बड़ा कामी, लम्पट है-इस बात को हम जान गये थे। चट्टला पर उसकी बुरी दृष्टि पड़ी थी।"
"यह बात कहनेवाले तुम आये कैसे?"
"मैं और चट्टला दोनों इस विषय पर पहले से विचार कर चुके थे, उसी के अनुसार चलने का निश्चय भी कर लिया था। हमने जैसा सोचा था, वैसे ही मुझे नदी पार कराकर छोड़ देने तक सब कार्य हुआ। आगे भी ठीक ही होगा ऐसा मेरा विश्वास
"तो तुम्हारा विचार है कि चट्टला अपने बल पर छूट आएगी!"
"हाँ, अपने बुद्धि-कौशल के बल पर वह पार हो जाएगी, यह मेरा विश्वास है। मैं समझ रहा था कि वह वास्तव में अब तक यहाँ पहुँच गयी है। क्योंकि उन लोगों ने मुझे रात के अंधेरे में नदी के उस पार छोड़ा था। मुझे घूम फिरकर नदी
294 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन