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साहित्य-सब पढ़ाती हैं।"
"मुझे मालूम ही नहीं था।'
"दूर पर रहेंगी तो मालूम पड़े भी कैसे? अब तो महाराती जी चल ही तो रही हैं। तब आप स्वयं अपनी आँखों देख सकती हैं।"
"मुझे जीना असह्य हो गया है। मेरे अन्तरंग में प्रवेश कर मेरे मन को समझनेवाला कोई नहीं है।"
'निकट सम्पर्क होने पर ही एक-दूसरे के अन्तरंग को समझ सकते हैं। दूर रहें तो वह कैसे सम्भव है? दूर रहने पर मेरे मन में चट्टला के बारे में कुछ
और ही विचार थे, अब के विचार ही कुछ और हैं। महारानी जी यों अकेली रहकर घुलते-घुलते परेशान होती रहने की अपेक्षा सबके साथ मिल-जुलकर रहें तो यह परेशानी दूर हो जाएगी।"
___ "मेरे पास में पिताजी रहे, बहनें रहीं। उन्होंने भी मुझे समझने की कोशिश नहीं की। ऐसी हालत में..."
"वे आपके साथ रहे, यही उनके प्रयत्न करने का प्रमाण है। उनका प्रयत्न यदि सफल न हुआ तो इसका यही माने है कि आपकी ओर से सहयोग नहीं मिला।"
"तुम तो एक अच्छे मनोवैज्ञानिक जैसे बात कर रहे हो!''
"मैं किसी शास्त्र का ज्ञाता नहीं। पट्टमहादेवीजी के सान्निध्य में रहकर जो कुछ अनुभव पाया, जो कुछ सत्य समझा उसे मैंने निवेदन किया है। बाकी विषयों में सोच-विचार कर निर्णय करने के लिए बहुत समय है। अब यात्रा को स्थगित नहीं
"तुम्हें आराम करने की जरूरत नहीं?"
"यादवपुरी पहुँचने के बाद आराम मिले, वही काफी है। महारानीजी स्वीकृति दें तो अभी घण्टा-भर में सब व्यवस्था किये देता हूँ। रथ में घोड़े जुत्ते हुए हैं। जल्दी पहुँचना है, इसलिए यह अनिवार्य है। रास्ते में जल्दी चल सकनेवाले घोड़ों को भी जहाँ-तहाँ तैयार रखने की व्यवस्था कर आया हूँ।" माचण ने निवेदन किया।
"मैं चलूँगी ही-इसका निर्णय रवाना होते समय ही कर लिया था क्या?"
"पट्टमहादेवीजी को आज्ञा थी कि किसी भी तरह आपको ले आना ही चाहिए। महामातृश्री कभी भी अपनी आकांक्षाओं को प्रकर नहीं करतीं। अब की बार प्रकट किया है। उनकी इस अन्तिम इच्छा को आप पूरा करेंगी-यही मेरा मन कहता था।"
"क्या तब भी जब मैं इतनी बुरी हूँ?" पद्मलदेवी बोली। "ऐसा किसने कहा? आपने कल्पना की होगी।'' "तुम बड़े विचित्र व्यक्ति हो!"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन ::31