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________________ न चाहने पर भी उसके लिए सजाया हुआ निवास व्यवस्थित था। उसकी आवश्यकताओं की देख-भाल करने के लिए एक सेवक भी रखा गया था। शिल्पी आकर हाथ-पैर धोकर सायंकाल की प्रार्थना आदि से निवृत्त हुआ। सेवक ने आकर पूछा, "भोजन?" "मंचणा! आज कुछ अस्वस्थ-सा हूँ; तुम भोजन कर सो जाओ!" शिल्पी ने कहा। मंचणा ज्यों-का-त्यों खड़ा ही रहा। "क्यों, " शिल्ली बोला : उसने कहा, "सुबह से ही काम में लगे होने से थके हैं। अब न खाएंगे तो कल काम..." "खाऊँ तो कल काम में बाधा होगी। तुम जाओ, और खाकर सो जाओ।" शिल्पी बोला। वह फिर भी खड़ा ही रहा। शिल्पी ने पूछा, "क्यों?" "मुझे पट्टमहादेवीजी की आज्ञा है कि भूखे न रहने देना। आप नहीं खाएँगे तो मुझे जाकर उन्हें बताना होगा।" "लेकिन यह तो मेरी इच्छा है। उनसे यह सब क्या कहना?" "सो मैं क्या जानूं? आप अकेले के ही बारे में नहीं, यहाँ काम करनेवाले प्रत्येक शिल्पी के भोजन-आदि के विषय में प्रतिदिन उन्हें बताना होता है। खिलानेवाले सभी को यह कड़ी आज्ञा है।" "इच्छा न हो तो भी खावें? क्यों?" "हम केवल आज्ञा-पालक हैं।" "ठीक, चलो! यह दबाव हुआ न?" वह उठकर अन्दर गया और खाने बैठ गया। हाथ का कौर हाथ में ही रह गया, वैसे ही बैठा रहा। इसे देखकर मंचणा कुछ हक्का-बक्का रह गया। बोला, "अन्न हाथ में लेकर चिन्ता नहीं करनी चाहिए, मेरी दादी कहा करती थी।" शिल्पी ने मंचणा की ओर देखा। उसकी दृष्टि कह रही थी कि किसी भी तरह कुछ खा लीजिए। शिल्पी दो-चार कौर खाकर उठ गया। उसका मन कहना चाहता था कि इन सब बातों को यहाँ मत कहे। मगर कहे या न कहे-कोई निर्णय नहीं कर सका। हाथ धोकर पलंग पर जा लेटा। बहुत समय तक उसे नींद नहीं लगी। आँख खुली रही तो फिर मंचणा कोई बात छेड़ देगा--यही सोचकर आँख मूंदै पड़े-पड़े कुछ सोचता रहा। इतने में मंचणा शिल्पी को सोया पाकर दीया बुझाकर चला गया। शिल्पी का मन अपने गाँव की ओर लगा था। पुरानी घटनाओं की स्मृतियों में लीन । विचारों के तुमुल में बीच-बीच में शान्तलदेवी की कितनी बातें याद आ रही 272 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तोन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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