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"यह सन्निधान भी एक समय आपकी ही तरह सामान्य जनता में एक
थी।।
"ऐसा!"
"शत-प्रतिशत। ऐसे समय शंका के कारण क्या सब गुजर गया। अन्त में सत्य की जीत हुई। बिना कारण शंकित होनेवालों ने अन्त में पश्चात्ताप भी प्रकट किया। उन पुरानी घटनाओं का अनुभव रखनेवाली में प्रत्यक्ष देखे बिना, संशय नहीं करती।"
"मैं ब्योरा पूयूँ तो अनुचित तो न होगा?" "इस समय बता नहीं सकती, फिर कभी सुनाऊँगी। कल क्या काम है?"
"दण्डनायकजी से कहा है। सूर्यास्त हो रहा है। सन्निधान के भोजन का समय..." शिल्पी कह ही रहा था कि अन्त:पुर से बच्चे के रोने का स्वर सुन पड़ा। वह स्वर धीरे-धीरे निकट आने लगा।
शान्तलदेवी और शिल्पी दोनों ने जिधर से स्वर आ रहा था उधर देखा।
सुचला बल्लू को सहलाती हुई आ रही थी। बच्चा हट्ट पकड़कर रोता ही रहा। गोद से उछल-उछलकर निकल जाने की चेष्टा कर रहा था।
"क्यों सुब्बला, क्या हुआ?'' शान्तलदेवी उठकर उसकी तरफ गयीं। शिल्पी भी उठकर खड़ा हो गया था।
"कितना सहलाने पर भी मानता नहीं। एक ही हट पकड़े रो रहा है । रोना बन्द ही नहीं हो रहा है।'' सुट्वला ने कहा।
शान्तलदेवी ने बच्चे को अपने हाथ में लेकर कहा, "माँ की याद कर रोता होगा। कैसे बहलाएँ इसे?"
सुचला ने कहा, "इसका पालन-पोषण सन्निधान ने ही तो किया है। तब क्या कठिन है?"
"ओह! ओह !! तुम अपने पति की बात कह रही हो। बेचारे ने माँ का दूध तक नहीं पिया। परन्तु बल्लू तो ऐसा नहीं।" बोलती हुई बच्चे को छाती से लगाकर पीठ सहलाने लगी। बच्चे ने धीरे- धीरे रोना बन्द किया। वैसे ही उसे नौंद लग गयो। शिल्पी कुतूहल से बच्चे को देखता रहा।
"इसके माँ-आप महासन्निधान के साथ युद्ध में तलकाडु गये हैं। इस बल्लू के माँ-बाप की जीवन-कथा भी तो बड़ी रुचिकर है।"
बच्चा फिर सिसकते-सिसकते जग गया।
"अच्छा, शिल्पीजी"-कहकर रोते बच्चे को साथ ले अन्दर चली गयौं । सुब्बला भी उन्हीं के साथ चली गयी। शिल्पी अपने निवास पर चला आया।
शिल्पी को लगा कि कोई उसके अन्तरंग पर प्रहार कर रहा है। चिन्तन की गहराई में वह डूबा था, उसी स्थिति में वह अपने आवास पर पहुँचा। उसके
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 271