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________________ फिलहाल काम करना-कराना मुझसे नहीं हो सकेगा। ईर्ष्या से मैं यह बात नहीं कर रहा हूँ। यदि ये ही इन चित्रों के निर्माता हैं तो इन्हें कृतिरूप में परिणत करने के लिए ये ही समर्थ हैं। इसलिए मुक्त करके वह स्थान इन्हीं को देना युक्त है।" हरीश ने कहा। "स्थपति के मन में जो शंका उत्पन्न हुई, उसे मैं समझ सकता हूँ। उनकी शंका को दूर कर सकने का विश्वास मुझे है। मैं यहीं रहकर उन्हें पूर्णरूप से अपना सहयोग दूंगा। वे ही स्थपति बने रहें । कीर्ति पाने का लालच मुझे नहीं है। मुझे यह आशा-आकांक्षा भी नहीं कि मेरा नाम दुनिया में स्थायी बनकर रहे । कृति स्थायी रहे--इतना ही पर्याप्त है। कर्नाटकियों की कला आचन्द्रार्क स्थायी रहकर जनता में श्रेष्ठ रुचि की प्रेरणा देती रहे, हमारी संस्कृति की प्रेरक शक्ति बनकर रहे-यही मेरे लिए पर्याप्त है। इन स्थपतिजी का अनुवर्ती बन अपना सम्पूर्ण योगदान दूंगा। इसका नाम, कीर्ति सब कुछ उन्हीं को मिले। मुझे कोई एतराज नहीं।" यायावर शिल्पी ने कहा। "दूसरों की कृति से नाम पाने की मेरी कोई अभिलाषा नहीं। कृति जिनकी हो नाम भी उन्हीं का होना चाहिए। इनके अनुसार मन्दिर निर्माण करने का यदि राजमहल का निर्णय हो तो मुझे इस पद से मुक्त कर दें। यह अवश्य हो।" हरीश ने स्पष्ट कह दिया। "स्थपति के स्थान से मुलन वा देने का सार्प नन्दिर-निगम के कार्य में सहयोग से भी मुक्त करना तो नहीं है न?" शान्तलदेवी ने सीधा प्रश्न किया। "इस पद पर यदि मुझे रहना हो तो अब तक जैसा है वैसा ही होगा. अन्य किसी भी रूप में यहाँ रहने में मन नहीं लगेगा। मुझमें वह सामर्थ्य नहीं।" हरीश ने कहा। "हठी नहीं बनना चाहिए। देश के काम में, समाज के काम में, समन्वय बुद्धि से काम करना चाहिए। व्यक्ति से प्रधान कृति है। यह तत्व यहाँ भी सार्थक होता है।" गंगाचारी ने कहा। "वह अभिमत की बात हुई। मुझे समाज के और देश के कार्यों में श्रद्धा है। उनके साथ समन्वित होने का मन भी है। परन्तु जिस कार्य में मैं लगा वह हस्तान्तरित हो जाय, मेरे लिए सह्य नहीं है। यह स्पष्ट है। इसी रचना के अनुसार अन्यत्र निर्माण की योजना हो तो मैं इस शिल्पी के साथ उनका अनुवर्ती होकर ही नहीं, चाहे तो उनका सेवक भी बनकर योग देने के लिए तैयार हूँ। मुझे ईर्ष्या नहीं है। कुल मिलाकर कहना हो तो यह पद मेरे लिए अनुकूल नहीं पता। मुझे मुक्त कर दें। इस एक विषय को छोड़कर अन्य सभी में मैं आज्ञानुवर्ती हूँ। फिर अन्यत्र चाहें तो वहाँ किसी स्थान.. पद की आकांक्षा के बिना जो आज्ञा होगी, उसका पालन करूंगा।" 760 :: पट्टमहादेत्री शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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