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________________ मोगा की बात साप्त होने से पहले ही शिल्पी ने कहा, 'मैं किसी धन्धे की खोज में नहीं आया। कलाकार एक स्वतन्त्र व्यक्ति होता है। वह किसी की परीक्षा के अधीन होकर परीक्षक के अनुमोदन द्वारा कोई स्थान-मान पाना नहीं चाहता। उसकी कृति उसके लिए स्थान बना देती है। इस तरह को अनावश्यक चर्चा से कोई लाभ नहीं। नाम-धाम, कुल-वंश, गोत्र-सूत्र की खोज के बदले कृतित्वशक्ति से युक्त कलाकार प्रधान है। शायद मेरी रीति आप सभी को कुछ विचित्र-सी लगती होगी। मैं किसी को शंका की दृष्टि से नहीं देखता। आत्मविश्वास के बिना कोई कलाकार नहीं बन सकता। उस आत्मविश्वास को छेड़ना नहीं चाहिए। सशंक होना उस छेड़खानी के लिए आह्वान देने का-सा है। ये चित्र किसी की रचना क्यों न हो, इन्हें जिस किसी ने बनाया हो-वे कृति के रूप में परिणत होने योग्य माने जाएँ तो उस कार्य में लगना मुख्य है। सनिधान जानती हैं कि इनके रचयिता कौन हैं। उसे चित्रकार नहीं कहने पर भी रचनाकार की कल्पना को कोई हानि नहीं पहुंचती। इसलिए आगे करणीय पर विचार करना युक्त है। इन बातों में व्यर्थ समय गंवाने की अपेक्षा कृति की ओर मन लगाना, मुझे उचित जान पड़ता है।" शिल्पो ने स्पष्ट किया। "अब आपकी क्या सलाह है, स्थपतिजी?" शान्तलदेवी ने पूछा। "इन्हीं ने इन चित्रों की रचना की है या नहीं, यह अलग बात है। रचयिता चाहे कोई हो; रचना उत्तम है। गुण ग्रहण करना चाहिए। अन्यत्र कहीं इसे रूपित कर कृति-निर्माण किया जा सकता है।" हरीश ने कहा। "राजमहल की इच्छा है कि यह यहीं साकार हो। आपकी राय है कि यह इच्छा असाधु है?" शान्तलदेवी ने पूछा। "यहीं कार्यरूप में परिणत किया जा सकता है। राजमहल को इच्छा योग्य ही है।" नागोज ने कहा। "राजधानी ही में ऐसी कृति निर्मित होनी चाहिए।" पदिर मल्लोज ने कहा। चालोज, मल्लियण्णा, चिक्क हम्प आदि ने भी इसका अनुमोदन किया। जब सभी की राय उसी तरह की हुई तो हरीश स्थपति ने परिस्थिति को भाँप लिया। उन्होंने कहा, "सभी की इच्छा मालूम हो गयी। वही हो। उसे कार्यान्वित करने के लिए सुविधा देने की दृष्टि से राजमहल मुझे इस पद से मुक्त करे, इतनी कृपा करनी होगी।" "क्यों? आप स्थपति बने रहिए। इस शिल्पी को कोई आपत्ति नहीं होगी। उन्हें स्थपति बनने को आकांक्षा भी नहीं।" शान्तलदेवी ने कहा। "सन्निधान मुझे अविनीत न समझें। मेरा एक तरह से खुला मनोभाव है। भीतर-बाहर एक-सा भाव। इस प्रसंग से मेरा उत्साह कुण्ठित हुआ है। पट्टपहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 254
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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