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________________ पहले दें।" शान्तलदेवी ने कहा । वह संकोच करने लगा। दासोज ने खुद बेटे को प्रोत्साहित करते हुए कहा, 'कहां, कहो, संकोच न करो। " ६. ' वह बहुत संकोच से, विनीत भाव से उठ खड़ा हुआ और वहाँ उपस्थित शिल्पियों को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, "मैं अल्पानुभवी हूँ। मेरा घराना इस शिल्पकला के लिए विख्यात बलिपुर का शिल्प घराना है। मेरे जन्मदाता एवं गुरुवर्य पिता के सामने वास्तव में मेरे हृदय को जो सूझा उसे कहते हुए भय लगता है। इसी तरह यहाँ उपस्थित आप बुज़ुर्गों के सामने कहते हुए डर लगता है । ऐसा कहूँ तो कोई यह न समझे कि मैं सत्य कहने से डरता हूँ । यदि मेरी बात किसी को अप्रिय लगे तो मेरी सत्यनिष्ठा की ओर दृष्टि रखकर मुझे क्षमा करें, यह मेरी विनीत प्रार्थना है। इन चित्रों की कल्पना करके एक सुन्दर विश्व को साकार बनाकर चित्रों के द्वारा अन्तश्चक्षुओं की साक्षात्कार करानेवाला काम एक साधारण शिल्पी से नहीं हो सकता। श्रेष्ठ शिल्पयों को देकर गौरवान्वित किया जाता है। विरुदावली से भूषित करते समय और भूषित होते समय एक मान-प्रतिष्ठा की छाप लग जाती है - यह स्वाभाविक है। दूसरा चारा नहीं। मुझे तो यही लगता है, इस चित्र को तैयार करनेवाले शिल्पी को विरुदभूषित करने के लिए उपयुक्त विरुदावली हो नहीं है। ऐसे शिल्पी का जन्म शायद एक युग में एक बार ही होता होगा । इस कृति को रूप में परिणत कर दें तो यह संसार की सर्वोत्कृष्ट कृति बनकर विश्व को ही चकित कर देगी। असाधारण कल्पना है। एकदम नयी कल्पना । यह मूर्त रूप में परिणत हो जाय तो पोय्सल राज्य की विश्व के लिए वास्तुशिल्प की एक देन होकर रहेगी। उस ब्रह्मा शिल्पी को देखने और उसकी चरण सेवा करने की मेरी अभिलाषा है। सन्निधान इसके लिए शीघ्र अवसर दें- यह मेरी विनीत प्रार्थना हैं। मेरे इस मोह का अन्यथा अर्थ न लें यह भी मेरी प्रार्थना है।" इतना कहकर वह सभा का अभिवादन करके बैठ गया। " इसके बाद प्रत्येक ने अपनी रुचि को जताते हुए राय दी। दासोज ने अभी 'अब हम सब अपने स्थपतिजी की राय सुनने अपनी राय नहीं दी थी, उन्होंने कहा, को उत्सुक हैं।" 'इतने लोगों का प्रशंसा पात्र जब बना है तो मुझे कहने के लिए क्या रह गया हैं। बहुमत ही कला के मूल्य को रूपित करता है। इसमें शंका नहीं कि इसके रचयिता कुशल कलाकार हैं। उनका मार्ग भी नूतनता की ओर अग्रसर है। देखते ही वह आकर्षक लगता है। अब तक जो था उससे बिलकुल भिन्न है। यही इसका मुख्य कारण हैं। कला की सूक्ष्मता और कोणाकृति बहुत अधिक होने के कारण बाहर 256 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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