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________________ समझने जैसी उत्कट परिस्थिति में प्राण देने का मूल्य ही कुछ और है। अनावश्यक दंग से प्राणार्पण करने से देश को उसका क्या लाभ?" "सो कैसे? "बैठो, बताऊँगी। सावधान होकर सुनो!" बिट्टियण्णा और सुव्यला को बैटाया। फिर कहा, "एक राज्य के जन्य का कुछ महत्त्व होता है। इतिहास पढ़कर तमने इसे जाना है। हमारे इस राज्य का केवल जन्म ही नहीं हुआ, इसे एक शताब्दी का समय भी हो गया। इस अवधि में इस राज्य में किसानों प्रगति की है। यह कैसे सम्भव हो सका, इस पर तुमने कभी सोचा है?" "एक के बाद एक प्रजाहित चाहनेवाले महाराज इस सिंहासन पर बैठे, इसीलिए।" "केवल इतना ही नहीं। सिंहासनासीन होने के लिए एक पारम्परिक क्रम है। बहुत करके वह जन्म के कारण प्राप्त होता है।" "पट्टमहादेवीजी जन्म के कारण नहीं बनी न?" "पट्टमहादेवी नारी है। हेग्गड़े मारसिंगय्या और हेगड़ती माचिकम्बे की बेटी होने पर भी यह मुझे प्राप्त हुआ। परन्तु यदि मैं पुरुष हुई होती तो यह सिंहासन मुझे प्राप्त होता? पुरुष हुई होती तो तुम्हारी ही तरह मैं भी एक छोटा दण्डनायक बनकर धीरे-धीरे नियोजित कार्य को करती हुई सबको तृप्त करने की कोशिश करतो. और धीरे-धीरे प्रगति कर उच्च से उच्च महादण्डनायक या प्रधान-ऐसा कुछ बनती, या बन सकती थी। सिंहासन पर बैठनेवाला व्यक्ति एक सत्कुलप्रसूत होता है। वह पारम्परिक है। परन्तु राष्ट्र को प्रवृद्ध होना हो तो वह तुम जैसों से ही साध्य है। तुम्हारे पिता, उनसे भी पहले के दण्डनायक, प्रधान, सचिव, भण्डारी आदि लोग, सीढ़ी-दर-सीढ़ी अपनी योग्यता, निष्ठा को प्रदर्शित करके अपने अनुभव, बुद्धिमत्ता और सामर्थ्य के कारण, इस राष्ट्र के निर्माण में सहायक बने। सभी ओर से राष्ट्र की रक्षा होनी चाहिए। इतने दण्डनायकों को हमें सर्वदा तैयार करते रहना चाहिए न? युद्धक्षेत्र में जाकर वहाँ अनुभव प्राप्त करने को तुम्हारी अभिलाषा आलुपों के साथ के युद्ध के सिलसिले में सफल हो गयी है। प्रधान गंगराज, पुनीसमय्या, माचण दण्डनाथ, डाकरस दण्डनाथ अब बड़ों की पंक्ति में हैं। उनके बाद की पंक्ति में एचिराज, बोप्पदेव, हैं। उनके बाद की पंक्ति में तुम हो, मरियाने, भरत हैं। राष्ट्र का जीवन हमारी आगे की पीढ़ी पर निर्भर है। तुम या मरियाते, भरत, बोप्पदेव रणरंग में जाकर प्राण दे दें और थोड़े ही दिनों में बृद्ध अधिकारी अयोधर्म के कारण दिवंगत हो जाये तो राष्ट्र की क्या दशा होगी? विश्वासपात्र बड़े अधिकारियों को प्रोत्साहन देकर हम बढ़ावें और साथ-ही-साथ उन्हें अनावश्यक ही रणरंग की अग्र पंक्ति में न भेजें, यही 238 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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