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________________ "बैठिए!'' शान्तलदेवी ने एक आसन की ओर निर्देश किया। "ठोक हूँ।'' कहकर, वह खड़ा ही रहा। इसे देख शान्तलदेवी ने कहा, "संकोच करने की आवश्यकता नहीं, सन्निधान की इच्छा ही मैं बता रही हूँ।" उसने चारों ओर देखा और फिर स्वयं को भी देखा। वह अन्दर-ही-अन्दर काँप उठा। वह जड़ सदृश खड़ा ही रहा। शान्तलदेवी ने पूछा, "आपने अपनी कल्पना को रेखांकित किया है न?" "अवश्य । यह है।" कहते हुए उसने पुलिन्दे को उनके पास के एक पट पर रख दिया। फिर उसी मुद्रा में खड़ा हो गया।" ___ शान्तलदेवी ने उस पुलिन्दे को खोला। एक-एक कर पृष्ठ उलटती गयीं। बिट्टिदेव भी तन्मय संदेखते रहे : सूरमा रेसानि नापीशीसान भरने पर भी उसे देखने में पर्याप्त समय लगा। "देवी, यह यदि रूपित हो जाय तो संसार इस पर पोयसल की छाप लगा देगा। इस तरह का प्रावध्यमय रूपरणा, कलापूर्ण भव्यता, वैशाल्य अब तक इ देखने को नहीं मिला। इस सबको म्योरेवार देखने के लिए अब समय नहीं है।" फिर शिल्पी की ओर देख कहा, "पट्टमहादेवीजी देखकर निर्णय करेंगी। आचार्यजी की कृपादृष्टि आप पर पड़ी है, आपकी कला को कान्ति कीर्ति दोनों प्राप्त होंगी।" फिर शान्तलदेवी से बोले, "हमें समय नहीं। इस शिल्पी के लिए उचित स्थान, वस्त्र और अन्य व्यवस्था पट्टमहादेवीजी आज ही कर दें तो अच्छा होगा। उन्होंने अपने आपको देख बहुत संकोच का अनुभव किया। कलाकार की कल्पना सुन्दर हो यही पर्याप्त नहीं, उनका व्यवहार, व्यक्तिगत बाह्य वेशभूषादि भी ऐसी होनी चाहिए जो उसके अन्तरंग को प्रतिबिम्बित करें। हम भी रणरंग से जयमाला पहनकर उसी उत्साह से आएँगे कि देखें, यहाँ का कार्य कैसा रूपित हुआ है। इतने में इसे परिपूर्ण रूप दे दें तो अच्छा।" बिट्टिदेव ने अपना आशय व्यक्त कर दिया। "अनेक प्रसिद्ध शिल्पी और उनके बहुत से शिष्यवृन्द काम में लगे हुए हैं। मैं भी नियोजित काम करूँगा। मुझे कोई स्थान नहीं चाहिए; किसी भी तरह के सुख को भी मुझे अभिलाषा नहीं है। मेरे अन्दर जो जीव है, वह जब तक उस काठी को छोड़कर उस विभु के पादारविन्द में मिल न जाए तब तक अवसर मिले तो परिश्रम में लग जाना ही मेरा काम है। अन्तरंग सुख की आकांक्षा करें तो बाह्म भी वह चाहेगा। मेरे जीवन में जब आन्तरिक सुख ही नहीं तो बाह्य की ओर ध्यान ही नहीं जाता।" शिल्पी ने विनीत हो निवेदन किया। 'पट्टमहादेवीजी के नेतृत्व में आपमें भी परिवर्तन होगा। अब समय नहीं हैं। रेविमय्या ये अब राजमहल के अतिथि हैं, अन्य शिल्पियों की तरह । जहाँ 234 :: पदमहादेवी शान्तला : भाग तोन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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