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देती है-उसकी प्रगति करे। विशेषकर जिसे इस जन्म में सन्तान प्राप्ति की कोई उम्मीद ही नहीं थी, जिसका पारिवारिक जीवन नष्ट हो गया था, वहीं फिर सुन्दर ढंग से बस गया और सन्तान प्राप्ति भी हुई, उसे बच्चे से पृथक् करना अच्छा नहीं, यही मेरी भावना है। उस दम्पती में असीम निष्ठा है। सन्निधान का आदेश उन्हें शिरोधार्य होगा। परन्तु युद्धक्षेत्र में व्यतीत होनेवाला उसका एक-एक क्षण अपने शिशु की चिन्ता में ही बीतेगा। हर माँ यही सोचती है कि उसको सन्तान की देख-रेख उससे बढ़कर कोई नहीं कर सकता।"
"उस ओर तो हमारा ध्यान ही नहीं गया। सुबह चट्टला को बुलवाकर जो ठीक लगे, कसे। वह नहीं भी जाए तो हमें लोई आपत्ति नहीं।"
"कल युद्ध के लिए प्रस्थान है इसलिए ब्राह्ममुहूर्त में तैलस्नान कर पूजाअर्चना भी करनी है। अब विश्राम किया जाय।" शान्तलदेवी ने सूचित किया।
"सो तो ठीक है। परन्तु कल जाने के बाद फिर देवी का सान्निध्य जयमाला धारण कर लौटने के बाद ही न...'
शान्सलदेवी ने बात पूरी होने से पहले ही कहा, "मैंने एक व्रत- पालन का निश्चय किया है, सन्निधान उसे पालने दें।
"देवी को किस इच्छा को हमने पूरा नहीं किया?"
"परन्तु आज मेरी इच्छा को पूर्ण करना हो तो सन्निधान को अपनी इच्छा पर अंकुश लगाना होगा।"
"हम समझे नहीं!"
"इस मन्दिर का निर्माण पूरा होकर विग्रह की प्रतिष्ठा के होने तक मैं व्रती हूँ। सन्निधान ने इस पवित्र कार्य को सौंपा है। उसे, उसी पवित्रता के साथ निर्वाह करने का मेरा संकल्प है। सन्निधान इस संकल्प की सिद्धि के लिए सहयोग देने की कृपा करें।"
"हमें देवी की रीति ही समझ में नहीं आती। विष्णुभक्त बनने को अस्वीकार कर अब मन्दिर निर्माण के लिए व्रतधारण! दोनों परस्पर विरोधी मार्ग हैं न?" ।
"मुझे ऐसा नहीं लगती। हेग्गड़े-दम्पती की पुत्री होकर जन्म से जिस धर्म का पालन करती आयी हूँ वह वैयक्तिक धर्म है। यह शान्तला का धर्म है। पोय्सलेश्वर की धर्मपत्नी होकर, उनकी इच्छा के अनुसार जिस कार्य को हाथ में लिया, वह पवित्र कार्य है। यह सती-धर्म है। कार्य पवित्रता की मांग करता है। युद्धक्षेत्र में शस्त्र शत्रु के नाश के लिए काम में लाया जाता है। परन्तु वह हाथ में है इसलिए सदा जो भी सामने मिले, उनका नाश करना क्या धर्म है? शत्रु-हनन कर विजय प्राप्त करनेवाले मारक अस्त्र की हम पूजा करते हैं। इसलिए परिस्थिति को समझकर व्यवहार करना उत्तम मानवधर्म है।"
पहमहादेती शान्ताना : भाग तीन :: 231