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हमने कहा कि मतान्तर से अच्छाई-बुराई दोनों हो सकती हैं। जब समझते हैं कि मतान्तर में अच्छाई है तो उसका अवश्य प्रसार करना चाहिए। लालच दिखाकर करना ठीक नहीं। वह मार्ग कभी अच्छा नहीं। जोर-जबर्दस्ती के पीछे क्रोध की आग लगी ही रहती है। मानसिक शान्ति देनेवाले धर्म और मत को रोष का उत्पादक साधन नहीं बनना चाहिए।"
"नूतन पन्थ के अनुयाथियों ने कभी दूसरों की निन्दा नहीं की, श्री श्री ने कहा न? अपने मार्ग को श्रेष्ठ बताते वक्त यह अवश्य बोध होता है कि दूसरों का मार्ग सारहीन है। पहले ऐसा सब हुआ है-इसे हमने ज्ञानियों से आना है। मतप्रवर्तकों द्वारा वाद-विवाद करके अपनी बड़ाई को साबित करने के लिए जिद पकड़कर भिन्न-भिन्न पन्थों का निर्माण कर देने के अनेक प्रसंगों का उल्लेख है। तब यह जोर-जबरदस्ती भी एक अनिवार्य अस्त्र बन जाती है. ऐसा मेरी अल्पमति को लगता है।" उदयादित्य ने बीच में नहीं।
"कहनेवालों की बात पर विश्वास कर हमें किसी निश्चय पर नहीं पहुंचना चाहिए। हमें अपना-अपना अनुभव ही आधार है। यदि अपनी बात को स्पष्ट करना चाहें तो हम यही कहते हैं कि हमने अन्य मत को कभी दूषित नहीं कहा है। ऐसा काम न हमने किया है, न करेंगे। एक नवीन मत का प्रतिपादन करना हो तो उसके लिए एक पुष्ट भूमिका, अनुभव, चिन्तन-मनन यह सब होता है। परात्पर शक्ति का ज्ञाता केवल एक व्यक्ति होता है तो वह उसके प्रभाव से निःस्वार्थ होता है। लोककल्याण के सिवा उसका दूसरा लक्ष्य होता ही नहीं। लोककल्याण का अर्थ केवल कुछ का अथवा बहुसंख्यकों का हित नहीं है, सभी मानवों को उस परात्पर शक्ति को जानकारी होनी चाहिए। तभी शान्ति स्थापित हो सकती है। उसके लिए अनेक रास्ते हैं। सुलभ मार्ग का अनुसरण कर जो उसे साध लेते हैं, वे अपने अनुभव-निरूपण के सिवा दूसरा कोई निन्दाजनक कार्य कर ही नहीं सकेंगे। अन्य मार्गों के कष्ट या क्लिष्टताओं को स्पष्ट करने का अर्थ उसकी निन्दा करना नहीं। जब हम यहाँ आये तो राजमहल से सम्पर्क स्थापित करने के इरादे से नहीं आये। हमने पहले ही बता दिया कि हम केवल शान्ति की खोज में आये। यहाँ का संस्कार उत्तम है। हमारा इन्होंने आदरपूर्वक स्वागत किया। महाराज ने जो उदारता दिखायी, उसके लिए क्या हम पात्र हैं? यह हम ही को आश्चर्य होता है। जिस राज्य में जन्मे, वहाँ के राजा के कानों तक हमारी आवाज पहुँची ही नहीं। यहाँ वह आवाज सचेतन हुई। हमारा मार्ग आपके सन्निधान को ठोक लगा तो उन्होंने हम पर विशेष भक्ति दिखायी। उन्होंने विशेष उत्साह से कहा कि वे भी उस मार्ग का अनुसरण करेंगे। इस सबके पीछे कोई योजना बद्ध प्रयत्न नहीं। सब उस केशव का आदेश है। आन्तरिक प्रेरणा है।
192 :: पट्टग्हादेनी शान्ताला : भाग तीन