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________________ विश्वास की जड़ें अच्छी तरह जमी न हों, अनेक तरह की शंकाएँ उठ खड़ी हो जाएँ, तब जो ठीक लगे उसके अनुसार चलना वास्तविक मार्ग है। उसे अगर मना कर दें तो अनिश्चितता, अविश्वास में परिणत होकर साक्षात्कार के लिए मार्ग ही नहीं रह जाएगा। ऐसे प्रसंग में जिसने विश्वास पैदा किया उसका अनुसरण करने से अच्छा होता है। "श्री श्री ने जो कहा वह व्यक्तिगत साधना के बारे में है।" "भारतीय धर्म ही व्यक्तिगत साधना पर अवलम्बित हैं।" "हमारा भी वही विश्वास है। परन्तु किसी अन्य मार्ग को श्रेष्ठ बताकर उसका प्रचार करने लगें तो पहले से अनुसृत मार्ग सारहीन है-यही न इस तरह के प्रचार का अर्थ होगा।" "हम जिस मार्ग का प्रतिपादन करते हैं वह श्रोताओं को ठीक लगे तब पूर्व की जो भावना रही, वह सारहीन प्रतीत हो सकती है।" "तो ऐसे सभी लोग मतान्तर के योग्य हैं-यही आचार्यजी का मन्तव्य है?" आचार्यजी के मुंह पर हँसी की रेखा खिंच गयी। "पष्ट्रमहादेवीजी ने इस विषय को मेरे ही ऊपर डाल दिया न? अच्छा हुआ। इस सन्दर्भ में एक बात को हम स्पष्ट करना उचित समझते हैं। क्योंकि अब यह सवाल उठा है, हमारे यहाँ आकर राजाश्रय प्रास कार के बाद इस मतान्तर की बात भी हमारे ही कारण उत्पन्न हुई है-ऐसा ध्वनित होता है। हम नहीं कह सकते कि इस ध्वन्यर्थ का कोई माने नहीं। हम यह आश्वासन देते हैं। हमारी रीति को स्वीकार करो, इसे मानो, इसका अनुसरण करो-इस तरह लोगों को हम उकसाते नहीं फिरेंगे। भारतीय धर्म की रीति-नीतियों को जाननेवाला कोई भी यह बात अस्वीकार नहीं करेगा। अविद्या और अज्ञान के कारण सुदृढ़ विश्वास अन्धविश्वास बन गया है और धर्म ने अपने मौलिक मानवीय मूल्यों को खो दिया है। सार्वजनिक हित का उसका स्वरूप नष्ट होकर कुछ लोगों के स्वार्थ का शिकार हो गया है। ऐसे मौके पर कोई-न-कोई साधक अवनति-प्राप्त धर्म का पुनरुत्थान करने के लिए जन्म लेते आये हैं। वे जिस सत्य का अनुभव कर सके, उसका प्रचार जनता में करते आये। अपना अनुसरण करनेवालों का स्वागत तो किया है। पर, उन्होंने कभी दूसरों की निन्दा नहीं की। ऐसे मौकों पर मतान्तर होता आया है। इससे उपकार भी हुआ है। परन्तु ऐसे समय पर खुले दिल से जिज्ञासा न कर सकनेवाले, असूयाग्रस्त होकर, धार्मिक कट्टरता के आवर्त में फँसकर, स्वार्थ-साधक बन विद्वेष पैदा कर, अमुक मतान्तर को एक भयंकर सामाजिक बीमारी कहकर गलत भावना उत्पन्न करने की कोशिश करते हैं। कई एक बार इस स्थिति के कारण रक्तपात की स्थिति भी उत्पन्न हुई है। इसीलिए घट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन :: 191
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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