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________________ "अब क्यों?" "हमने अपनी आँखों देखा, इसलिए।" "यदि सन्निधान को एसा लगा तो उसे अपने तक सीमित तो अच्छा होता। समझते हैं, अब क्या हो गया? वे देवांश सम्भूत महापुरुष हैं-इस बात की घोषण स्वयं सन्निधान ने राज्य-भर में की, यही हुआ।" "हो, इसमें क्या गलती है ? जो अच्छा है उसकी सबको जानकारी मिलनी ही चाहिए। अभी सारे राष्ट्र को कहाँ मालूम हुआ? अभी तो जानकारी देनी है।" "वह काम अब अपने आप होता जाएगा। राज्याश्रय, मुद्रांकित साहाय्य हैयही कहकर ये स्वयं प्रचार करेंगे। प्रचार करनेवाले चेलों को इकट्ठा कर जल्दी-जल्दी यह काम कराएंगे।" "करने दें, इसमें गलती क्या है ? जिसकी इच्छा हो वे उनका अनुसरण करेंगे, उनके अनुयायी बनेंगे।" "तो मतलब यह हुआ जिस विश्वास में जन्मे, जिसको लेकर जिये, उसे निकालकर अन्य तरह के विश्वास को बिठाना हुआ न?" "वे द्वेष तो नहीं करते। अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। उन विचारों में उनकी आस्था स्थायी बन गयी है। उसी का वे प्रतिपादन करते हैं। आपको वह ठीक अँचे तो आप भी अनुकरण कर सकती हैं।" "चर्चा करने के लिए बातें ठीक हो सकती हैं। वास्तव में ऐसा नहीं होता। महाराज स्वयं प्रभावित हुए हैं इसलिए इसमें कुछ है-यही समझकर आगे-पीछे कुछ सोच-विचार न कर लोग अपने विश्वास को बदल भी सकते हैं। क्योंकि हम जो कदम उठाते हैं, वह हमारे लिए प्रधान होने पर भी हमसे अधिक उसकी प्रतिक्रिया देश में अधिक होगी। इसलिए राजमहल को इन बातों से दूर रहना अच्छा है।" "राजमहल तो दूर ही है। हमने सभा में भाग नहीं लिया न? अधिक लोगों के बैठने के लिए अन्यत्र विशाल स्थान के न मिलने पर यहाँ सभा बिठायी गयी।" "तो क्या वेश बदलकर लोगों के बीच में बैठने के माने उसमें भाग लेना नहीं है?" "सो भी आकस्मिक है। लोगों की प्रतिक्रिया जानने की इच्छा हुई थी।" "चरों को भेज सकते थे?" "खुद के सुनने-समझने में एक रस है। आज के इस वेश-परिवर्तन से जो काम हुआ वह अनुसरण करने योग्य लगा।" "तो सन्निधान इसी को आगे बढ़ाएँगे?" "यही विचार है।" 178 :: घट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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