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"दण्ड देंगे न?" "इसमें सन्देह ही नहीं।" "तो आपसे कहने से कोई प्रयोजन नहीं।"
नागिदेवण्णा आचार्यजी के इस निर्णय को सुन कुछ हतप्रभ हो गये। आचार्यजी को ही देखते बैठे रहे। आचार्यजी भी कुछ सोचते बैठे रहे।
इतने में एम्बार दूध ले आया, मन्त्री के सामने रखा। कहा, "स्वीकार करें।" आचार्यजी ने भी कहा।
सचिव नागिदेवण्णा ने पात्र हाथ में लिया. पिया नहीं, थोड़ी देर यों ही बैठे रहे।
"एम्बार! उन पालकी-वाहकों को दूध देने के लिए कहा है न?" एम्बार यहाँ ठहरा नहीं, कोई उत्तर न देकर अपने काम पर चला गया। "दूध ठण्डा हो जाएगा।"
लाचार होकर पीना पड़ा। .. * वार्यजी स्ना का ने भाकाम हैं तब दृध पसन्द भी कैसे हो। किसी तरह एक बूंट तो निगलें। आचार्यजी ने इसे लक्ष्य किया।
___ "आप पीजिएगा। हमारी मानसिक चिन्ता को लेकर आपको चिन्तित होने की जरूरत नहीं। कोई ऐसी भयानक बात नहीं है। आप दूध पी लें। बाद को बात बता
नागिदेवण्णा ने दूध पी लिया।
"कल अचानक एक बहुत दुःखी व्यक्ति से भेंट हुई। मुझे उस व्यक्ति में शिल्प कलाभिज्ञता दिखी। उसके उस दुःख को समझकर उसे दूर करने की हमें इच्छा थी।" यह कहकर उस यात्री के विषय में विस्तार के साथ आचार्यजी ने बताया। अन्त में कहा, "भगवान् को आज हम पर दया नहीं आयी। कल हम पर भगवान् की जो कृपा रही, वह आज नहीं रही—यही हमारी मानसिक उद्विग्नता का कारण है।"
“कहाँ जाएगा? चारों ओर दूत भेजकर चाहे कहीं हो, पकड़ लाने की व्यवस्था करूँगा। आप चिन्ता न करें।"
"न, न, ऐसा न करें। दुःखी जीव स्वेच्छा से रहना पसन्द करता है। उसकी उस स्वेच्छा में एक तरह का आक्रोश है। उसके मन को पकने में समय की आवश्यकता है। तब वह अपने आप ठीक हो जाएगा। या यों हो सकता है कि भगवान् ने उस दुःखी व्यक्ति के दुःख दूर कर उसे तसल्ली देने के लिए किसी अन्य पुण्यवान् व्यक्ति को नियोजित किया होगा। इसी वजह से यह कलाकार हमारे हाथ से छूट गया हो। दूसरों को प्राप्त होनेवाले पुण्य को हम अपने लिए चाहें-- यह गलत है। यही समझकर हम अपने को शान्त कर लें, यही ठीक
170 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन