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________________ मन को कलुषित करना नहीं चाहती, इसलिए मैं चुप हूँ। मेरी यही इच्छा है कि मेरे किसी तरह के व्यवहार से सन्निधान और राष्ट्र का अहित न हो। मैं क्या चीज हूँ? एक साधारण हेग्गड़े की बेटी। पहले से मुझे सँवार-सुधारकर, जिसे मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था, ऐसे एक उन्नत-स्थान पर बिठाकर, आशीर्वाद दिया। आपके इस विशाल मन की उदारता का कुछ अंश कम-से-कम मुझ में बना रहे तो मेरा जीवन सार्थक और सफल हो जाए, यही मेरी इच्छा है। अब तक के मेरे इस दाम्पत्य जीवन का प्रत्येक क्षण एक से बढ़कर एक अच्छा रहा है। फलस्वरूप मैंने राजवंश के संवर्धन में भी सफलता पायी, अपनी सन्तान के द्वारा। एक स्त्री अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में जो सुख, सम्पत्ति, सन्तान, कीर्ति, स्थानमान पाना चाहती है--यह सब कुछ आपके आशीर्वाद से मुझे प्राप्त हो गया है। सो भी आम और अ- माता-पिता के सामने सब इतना सब पा चुकी हूँ तो मैं इस सबसे बढ़कर और क्या चाहूँगी। मुझमें और कोई आशा-आकांक्षा नहीं बच रही। मैं संन्यास लेकर अपने जीवन को पूर्ण करने के लिए भी तैयार हूँ। इसलिए मेरे बारे में आप चिन्तित न हों। मुझ पर विश्वास रखकर अब आप पूरी तरह निश्चिन्त रहें, यही अब मुझे आपसे चाहिए।" __ "ठीक है, जाने दो अम्माजी। रेविमय्या ने तुमको मुझसे भी बढ़कर अच्छी तरह समझा है। परन्तु मैं उसकी बातों का विशेष मूल्य नहीं आँक सकी थी। अब मैं निश्चिन्त हूँ। यह निश्चित हो गया कि राष्ट्रहित मात्र तुम्हारा लक्ष्य है। किसी की भी सलाह की आवश्यकता नहीं। चेताने की भी आवश्यकता नहीं। तुमने सही कदम उठाया है। तुम्हारा रास्ता ही सर्वश्रेष्ठ है। अब वास्तव में मैं निश्चिन्त हूँ। जिस आकांक्षा से मैंने तुम्हें अपनी बहू बनाया था, उससे भी बढ़कर सफलता तुमसे प्राप्त होगी। वास्तव में मेरा बेटा भाग्यवान् है। पट्टमहादेवी के रूप में तुम्हें पाकर यह पोयसल राष्ट्र भाग्यशाली है।" एवलदेवो यह सब कह चुप हो रहीं। तभी रेविमय्या ने परदा हटाकर अन्दर प्रवेश किया। "क्या है, रेविभय्या?" शान्तलदेवी ने पूछा। "हेग्गड़तीजी अगर आयी हो..." कह ही रहा था कि एचलदेवी ने कहा, "जाओ अम्माजी, शायद तुम्हारी आवश्यकता है। अभी-अभी हेगड़तीजी आ ही जाएंगी। तुम जाओ।" "इतनी जल्दी है रेविमय्या?" शान्तलदेवी ने पूछा। "दवा देने का समय हो आया...आप पधारें तो अच्छा।" "ठीक है।" शान्तलदेवी उसके साथ चल दी। परदा हटनेवाला ही था कि हेग्गड़तीजी वहाँ आ पहुंची। "ओह माँ, अच्छी तो हैं ? पिताजी कैसे हैं?" 18 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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