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________________ "कहाँ से?" "दोड्ड गुडुवल्ली से।" "आप वहाँ के हैं?" "नहीं" "तो फिर?" "वहीं कुछ दिन ठहरना पड़ा था।" "मन्दिर के काम पर?" "हो!" "पूरा हो गया?" "हाँ।" "कौन-सा मन्दिर?" "लक्ष्मीदेवी का।" "उस मन्दिर के स्थपति आप ही हैं?" "नहीं, विश्वकर्मा निर्मित सुभाधिन पिझदांकित मम्लोल के माणियोज़ उसके स्थपति हैं। मैं तो एक साधारण शिल्पी हूँ1 महाद्वार का काम मुझे सौंपा गया था।" "इतना ही?" "आठ हाथोंवाली काली की मूर्ति और उस देवी के गर्भगृह के सामने के बेताल समूहयुक्त मुख-मण्डप का भी काम सौंपा गया था।" "इनमें से आपके मन को अधिक रुचिकर और प्रिय कौन-सा काम लगा।" "द्वार-स्तम्भ की नग्नता, बेतालों के अस्थि-पंजर को बीभत्सता, काली की वह भयंकर उग्रता, इन तीनों में से कोई भी अच्छा नहीं लगा।" "तो आपने अप्रिय कार्य किया?" पान्य कुछ हतप्रभ हुआ। उत्तर देने के लिए कुछ युक्ति-संगत बात वह सोच रहा था, शायद। लेकिन उसे अपने मन को भी वश में रखना था। थोड़ी देर मौन रहकर उसने आचार्य की ओर देखा। फिर कहा, "न, न, ऐसा नहीं। काम सब बराबर होता है। कला में अमुक प्रिय है, अमुक नहीं, या अमुक कम प्रिय है-इस तरह का भेद नहीं है। भाव कुछ भी हो, कला में एक स्थायी आनन्द को रूपित करना होता है। इसके अलावा कलाकृति में जिस भाव की अभिव्यक्ति होनी चाहिए, वह कलाकार पर हावी न हो, यही अच्छा है।" "तो क्या वे भाव आप पर हावी हुए थे?" पान्य मौन रही। सिर झुकाये खड़ा रहा। ऐसा लगा कि वह कोई उत्तर देने का प्रयत्न नहीं कर रहा है। आचार्य ने उसकी ओर देखा। "अच्छा, उसे रहने दीजिए. देखनेवाले कहते हैं न? यह उससे अच्छा है।" पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीन :: 151
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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