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जाना ही उचित मालूम पड़ा। वह शाल पीढ़ियों से उस बृहत पेटी में सुरक्षित था। उस शाल को खास-खास मौकों पर हो बाहर निकाला जाता, जब चाहे तब नहीं। यह इसलिए कि कहीं उस पर धूल न लग और रंग न उतर जाए।
उस पेटी को खोलने के लिए चाबी लटकानेवाली खूटी पर हाथ लगाया। परन्तु चाबो वहाँ नहीं थी। घर-भर के लोगों पर अपना गुस्सा उतारा। आखिर असार माया में ये काम कल्यागकर काम के एक वैद्यकीय ग्रन्थ की रचना कर रहे थे। उसके लिए आवश्यक तुलनात्मक ग्रन्थ, 'चामुण्डराय का लोकोपकार', 'धन्वन्तरि संहिता', 'ओषधि कल्पना', 'रस वैद्य' आदि को देखने के इरादे से उन ताड़पत्र-ग्रन्थों को उसी पेटी से निकाला था। उन्हें, उन्हीं ग्रन्थों के साथ रखी चाबी मिल गयी। इससे उन्हें अपार हर्ष हुआ। पेटी खोलकर उस शाल को बाहर निकाला और उसकी सुन्दरता को देख स्वयं मुदित मन उसे ओढा और पत्नी से कहा, "राजमहल जा रहा है।"
पत्ति को विदा करने के लिए पण्डितातीजी दरवाजे तक जो आयीं तो बोली, "लाल गोटी की जरीदार धोती पहनें तो इस शाल के साथ अधिक शोभा देगी।" पण्डितजी को भी यह सलाह अच्छी लगी। इस धोती की वजह से फिर अर्धघटिका समय और लगा। अब सब तरह से लैस होकर पण्डितजी राजमहल पहुंचे, उसी पालकी में।
देरी हो जाने से पालकीवाहक पण्डितजी को ढोकर भागे-भागे राजमहल पहुँचे।
उनके पहुँचने के पूर्व ही आचार्यजी वहाँ पहुँच चुके थे। राजमहल की उस विशाल बैठक में आचार्य, उनके शिष्य एम्बार, सचिव नागिदेवण्णा, मंचिअरस, छोटे मरियाने दण्डनायक, उनके पिता डाकरस दण्डनाथ, गोपनन्दि पण्डित, सुमनोबाण, श्रीपाल वैद्य, शुभकीर्ति, नयकीर्ति, वामशक्ति पण्डित, तेजचमूप, सिंह चमूप, सूजिय सर्वदेव, रविदेव, बेल्लिय वीरशेट्टि, ईश्वर शेट्टि, नरसिंह गौंड, मुद्दगौंड, बहुबन्धमल्ल केसरी पहलवान आदि आदि वहाँ मौजूद थे।
देरी से पहुँचने के कारण पण्डितजी शर्मिन्दा हुए. उस पर औषधि-पेटिका न नान के कारण और अधिक। इतना सब लैस होकर ओषधियों की पेटी न लाने को बात उन्हें रास्ते में सूझी भी थी। खैर, अन्न तो आ ही गये थे, वहाँ बैठे सभी सज्जनों के साथ सम्मिलित हो गये। वहाँ जो बुलवाया गया था, इस विषय में सभी वैसे ही आश्चर्यचकित थे, जैसे पण्डितजी। क्योंकि किसी को भी शायद मालूम नहीं था कि क्यों बुलवाया गया है। आचार्य प्रसन्न मुद्रा में विराज रहे थे।
त्रामरधारिणी पोचिकव्ये और चेन्नब्वे अन्दर से आर्यो। उनके आते ही, यह जानकर कि पट्टमहादेवी पधार रही हैं, छोटे मरियाने दण्डनायक और उसके पिता
पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तोन :; 133