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बोकण ने कहा, "आपके यहाँ कोई आचार्य पधारे हैं न, उन्हें और आपको तुरन्त बुला लाने के लिए सन्निधान ने आदेश दिया है।"
"बात क्या है?"
"हम नौकरी बजानेवाले मूखों को क्यों, क्या का यह ब्योरा कहाँ मालूम होता, पण्डितजी। आदेश हुआ, चले आये। क्यों, क्या यह सब हम पूछ सकते हैं? हम तो हुकुमबरदार हैं। हाँ, जल्दी तैयार हो जाइए, देरी करेंगे तो डॉट हम पर पड़ेगी।"
इस उत्तर से पण्डितजी का कोई समाधान नहीं हुआ। आचार्यजी को आखिर इतनी जल्दी क्यों बुलवाया? शायद मेरी सलाह के अनुसार पट्टमहादेवी जी ने राजकुमारी को दिखाने ही आचार्यजी को बुलवाया हो...यही पण्डितजी ने सोचा। पिछले दिन आचार्यजी जो राजमहल हो आये थे सो पण्डितजी नहीं जानते थे। मालूम होता तो यों सोचने को जरूरत न होती।
"खाली हाथ जाना होगा या साथ में ओषधि-पेटिका भी ले जाना उचित होगा यह समझ में नहीं आ रहा है"-पण्डितजी का असमंजस विकलता में बदलने लगा।
"जो आदेश हुआ सो सुनाया। अब आप जैसा उचित समझें, करें। इसी उधेड़बुन में देर कर देंगे तो ठीक न होगा। जल्दी करें। आचार्यजी को भी जल्दी तैयार होने को कहिए!"
"वे यहाँ नहीं हैं। कल ही शाम को नरसिंहस्वामी के मन्दिर चले गये न!"
"बहुत ठीक! इस बात को पहले ही बता देते, पण्डितजी! राजवैद्य के घर को छोड़कर मन्दिर जाएँ? बहुत अच्छा!"
"हाँ, सुना नहीं- गुलामी के पकवान से आजादी का सत्तू भला।"
"हो सकता है; बड़ों की बातों से हमें क्या सरोकार। पण्डितजी, आप तो इस पालकी में बैठकर सीधे राजमहल चलिए! मैं उन्हें दूसरी पालकी में लिवा लाऊँगा। जल्दी आ जाइए। पालकी यहीं दरवाजे पर ही रहेगी। बाद में शाल ढूँढ़ने में ही समय मत बिता दीजिए।"--इतना कहकर बोकण चला गया।
सोमनाथ पण्डित बड़े सरल प्राणी हैं। राजमहल के कर्मचारियों के साथ बड़े आत्मीय भी हैं। उनकी रीति-नीतियों से सभी परिचित हैं। लेकिन बोकण का अन्दाज ठीक निकला, क्योंकि आमतौर पर राजमहल जाते वक्त ओढ़ने का शाल सामने ही था। उसी को ओढ़कर वे उसी क्षण निकल सकते थे। पर उनका मन उस पर न लगा।
अब तो आचार्यजी के साथ जाना होगा न? इसलिए वैद्यकीय पुरस्कार देने के समय बिलस्त-भर चौड़े किनारेवाला मयूरी रंग का जरी के कामवाला शाल ओढ़कर
732 :: पट्टमहादेवी शान्सला : भाग तीन