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________________ "हम विश्वास करते हैं--यह कहने से भी यों कहना अधिक उचित होगा कि दूसरों का जिसपर दृढ़ विश्वास है उसे हम योग्य मूल्य देते हैं।" "अम्माजी, आपका यह दृष्टिकोण बहुत ही उत्तम है। हममें रूढ़ मूल विश्वास जो हैं उससे भिन्न किसी और विश्वास रखनेवालों के दृढ़ विश्वास पर छींटाकशी म करके उदार दृष्टि से परखना वास्तव में सही मानव धर्म है। यदि प्रत्येक व्यक्ति इसी नीति का अनुसरण करे तो धर्म द्वेष का रूप न धरेगा और अनावश्यक दुःख-क्लेश आदि के लिए भी स्थान नहीं रहेगा। खासकर राज्यनिर्वहाण करनेवाले राजाओं के लिए यह अत्यन्त आवश्यक और अनुकरणीय नीति है। हम जिस पर विश्वास रखते हैं और हम जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं वहीं सही है.--ऐसा मानकर चलें तो वे राज्य के पतन के लिए निश्चित आधार बन जाते हैं । इसीलिए मैंने पहले ही कहा कि इन हमारे हेगड़ेजी का परिवार एक बहुत ही उत्तम उदाहरण है। इसी तरह की प्रवृत्ति के कारण उनके परिवार में शान्ति विराज रही है। हंगाजी की विशाल दृष्टि के कारण हेग्गड़तीजी को अपने विश्वास के अनुसार चलने में कोई बाधा नहीं हो पायो है। इसी तरह से राजा की नीति और कर्तव्य बड़े पैमाने पर व्यापक हैं। जब भी मैं हेग्गड़ेजी के विषय में सोचता हूँ तो मुझे वे सदा पूजनीय ही लगते हैं। यह उनके समक्ष उनकी प्रशंसा करने की बात नहीं । यदि उनको इच्छा होती तो हमें यहाँ भेजकर वे सीधे जा सकते थे। ऐसा न करके हेग्गड़ती के एत्र हमारे विश्वास को प्रोत्साहन देकर साथ चले आये। इतना ही नहीं, हम जहाँ भी गये वहाँ साथ रहकर हमारी पूजा-अर्चा में भाग लेते रहे । सम्भवत: जहाँ हम जिननाथ के दर्शन करते हैं वहीं वे अपने आराध्य शिव का दर्शन भी करते होंगे। यों राज्य संचालन में निरत राजाओं के मन में भी विशाल भावना का उद्गम होना चाहिए, हेगड़ेजी में यह विशालता है, इसे मैंने कई बार अनुभव किया है।" ___ "तो आपका तात्पर्य है कि बाहुबलि में, चन्द्रप्रभ स्वामी में, पार्श्वनाथ स्वामी में उन्होंने शिव को ही देखा, यही न?" बिट्टिदेव ने सीधा सवाल किया। "यदि हम विश्वास रखते हैं कि चामुण्डरायजी ने कठिन प्रस्तर खण्ड में बाहुबलि का दर्शन किया तो इसे भी मानना ही चाहिए।" बोकिमय्या ने कहा।। ___ अब तक हेग्गड़े मारसिंगय्या मौन रहे, अब बोल उठे, "कविजी, हमारी जो प्रशंसा की वह आपके बड़प्पन का सूचक है। एक बात तो सत्य है, शिवजी को हमने मानव के आकार में गढ़वाया नहीं, इसका कारण यही है कि वह निराकार, सर्वव्यापी है। अतएव हम उसकी आराधना लिंग के रूप में करते हैं । शिव के आराधक हम जन्म से ही विशालहृदयी हैं। इसी वजह से शेष अनेक धर्म मार्गों का उदय तथा उनका विकास हमारे इस पवित्र देश में हो सका। परन्तु हम, हम ही रह गये हैं। हमारी वह मूल कल्पना सर्वत्र सबमें जिसे जैसा चाहे प्राप्त करने में समर्थ है । यदि कुछ भी प्रतीक न हो तो हम तात्कालिक रूप से बालुका- लिंग बनाकर पूजा करते हैं और उसी में तृप्ति पट्टमहादेवी शान्तला ; : 85
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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