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________________ धर्म के अनुसरण करनेवालों को गुप्त रीति से अपने घरों में अपने धर्म का आचरण करना पड़ रहा है।" बोलिगमा ने बताया "यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे होय्सल राज्य में उस तरह का बन्धन नहीं। किसी से डरे बिना निश्चिन्त होकर हम अपने धर्म का पालन कर सकते हैं। जैन प्रभुओं ने शैव भक्तों को कभी सन्देह की दृष्टि से नहीं देखा। जब उनमें किसी तरह का सन्देह ही नहीं तो हम अपनी निष्ठा को छोड़कर क्यों चलने लगे?" मारसिंगय्या ने कहा। ___ "धर्म भिन्न-भिन्न होने पर भी परस्पर निष्ठा-विश्वास ही मानव का लक्ष्य है: इस लक्ष्य की साधना ही मानव-समाज का ध्येय बनना चाहिए। ईश्वर एक है। हम अपनी-अपनी भावनाओं के अनुसार मूर्ति की कल्पना कर लेते हैं। भिन्न-भिन्न रूपों . में कल्पित अपनी भावना के अनुरूप मूर्तियों की पूजा निडर होकर अपनी आराध्य मूर्ति को साक्षात् करने का मौका सबको समान रूप से मिलना चाहिए। यदि राजाओं के मनोभाव विशाल न हों तो प्रजा सुखी नहीं होगी। जिस राज्य की प्रजा सुखी न हो वह राग्य बहुत दिन नहीं रहेगा। यह सारा राज्य प्रजा का है। मैं इसका रक्षक हूँ, मैं सर्वाधिकारी नहीं हूँ, मैं प्रजा का प्रतिनिधि मात्र हूँ, ऐसा मानकर जो राजा राज्य करता है उसका राज्य आचन्द्रार्क स्थायी रहेगा। जो राजा यह समझता है कि मैं सर्वाधिकारी हूँ. प्रजा मेरी सेवक मात्र हैं, जैसा मैं कहूँगा वैसा उन्हें करना होगा, ऐसी स्थिति में तो यह खुद अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मार लेता है। 'मैं केवल प्रतिनिधि मात्र हूँ, प्रजा की धरोहर का रक्षक मात्र हूँ, राज्य प्रजा का है ऐसा मानकर जो राजा राज करता है वह निर्लिप्त रहकर जब चाहे तब उसका त्याग कर सकता है। अब हम जिस पहाड़ पर बैठे हैं उसका नाम चन्द्रगिरि है। यह इसका दूसरा नाम है। यह नाम इसे इसलिए मिला है कि यह उस महान् चक्रवर्ती राजा के त्याग का प्रतीक है। हिमालय से लेकर कुन्तल राज्य तक फैले इस विशाल साम्राज्य का त्याग करके यहाँ आकर व्रतानुष्ठान में रत रहनेवाले सम्राट चन्द्रगुप्त ने यहीं से इन्द्रलोक की यात्रा की थी। इसीलिए इस कटवप्न का नाम 'चन्द्रगिरि' पड़ा।" "आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ मूर्ति के इस पर्वत पर स्थापित होने के कारण ही न इसका नाम 'चन्द्रगिरि' हुआ?" शान्सला ने पूछा। "हो सकता है। परन्तु किंवदन्ती तो यह है कि उस राजा का नाम इस पहाड़ के साथ जुड़ा हुआ है । तुम्हारा कहना भी युक्ति-युक्त ही नहीं प्रशंसनीय भी है, ऐसा लगता है।" बोकिमय्या ने कहा। विट्टिदेव मौन हो सुनता रहा। उसके मन में बोकिमय्या की कही राज्य और राजपद से सम्बन्धित बातें थीं, जो बार-बार चक्कर काट रही थीं। "गुरुजी,महान हठी नन्दों से साम्राज्य छीनकर अपने अधीन करनेवाले चन्द्रगुप्त पट्टमहादेवी शान्तला :: 8
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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