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उत्तनी ही प्रतीत होती है। यदि नया कुछ दिखाई पड़ा या सुनाई पड़ा तो वह उसके लिए क्षुद्र प्रतीत होने लगता है। तब वाद-विवाद की गुंजाइश निकल आती है। इन सबका कारण यह है कि ऐसी दाद व गाजकिय को लगते हैं।" बोकिमय्या ने कहा।
"तो आपका अभिमत है कि मजबूत नींव पर स्थित विश्वास यदि रूपित हो तो यह वाद-विवाद नहीं रहेगा?" बिट्टिदेव बीच में पूछ बैठा।।
"वाद-विवाद हो सकते हैं। वह गलत भी नहीं। परन्तु जब विश्वास सुदृढ़ होता है तब उससे प्राप्त होनेवाला फल और है। उससे तृप्ति मिलती है और इस तृप्ति में एक विशाल मनोभाव निहित रहता है। तात्पर्य यह कि वाद-विवाद कितना भी हो उससे कडुवापन या अतृप्ति पैदा नहीं होती। अब उदाहरण के लिए अपने हेगड़ेजी के परिवार को ही देखिए । हेगड़े शिवभक्त हैं, हेग्गड़ती जिनभक्त हैं। एक-दूसरे के लिए अपने विश्वास को त्याग देने की. जरूरत ही नहीं पड़ी है। भिन्न-भिन्न मार्गावलम्बी होने के कारण पारिवारिक स्थिति में असन्तोष या अशान्ति के उत्पन्न होने की सम्भावना तक नहीं पैदा हुई है। है न हेग्गड़ेजी?"
"कविजी का कथन एक तरह से सही है । परन्तु हमें इस स्थिति तक पहुँचने के लिए कई कड आहट के दिन गुजारने पड़े।'' मारसिंगय्या ने कहा।
"कडआहद आये बिना रहे भी कैसे? वे कहते हैं, वह धर्म जिस पर उनका विश्वास है वही भारत का मूल धर्म है; हम जिस पर विश्वास रखते हैं वह परिवर्तित धर्म है। ऐसा कहेंगे तो क्या हमारे मन को बात चुभेगी नहीं?" किसी पुराने प्रसंग की बात स्मृति-पटल पर उठ खड़ी हुई-सी अभिभूत माचिकब्बे ने कहा।
यह देखकर कि बड़े भी इस चर्चा में हिस्सा ले रहे हैं, उन छोटों में रुचि बढ़ी और वे भी कान खोलकर ध्यान से सुनने लगे।
"कविजी, आप ही कहिए, जिन धर्म का आगमन बाद में हुआ न?" पारसिंगय्या ने पूछा।
"कौन इनकार करता है।" बोकिमय्या ने उत्तर दिया।
"जिन धर्म बाद में आया ठीक; परन्तु क्या इसी वजह से वह निम्न-स्तरीय है? आप ही कहिए!" माचिकब्बे ने फिर सवाल किया।
"कौन ऊँचा, कौन नीचा इस ऊँच-नीच की दृष्टि को लेकर धर्म-जिज्ञासा करना ही हमारी पहली और मुख्य गलती है। भारतीय मूल धर्म जैसे उद्भूत हुआ वह उसी रूप में कभी स्थिर नहीं रहा। जैसे-जैसे मानव के भाव और विश्वास बदलते गये तैसे-तैसे वह भी बदलता आया है। मानवधर्म ही सब धर्मों का लक्ष्य है और आधार है। हम धर्मों को जो भिन्न-भिन्न नाम देते हैं वे उस लक्ष्य की साधना के लिए अनुसरण करने के अलग-अलग मार्ग-मात्र हैं। जिनाराधना और शिवाराधना दोनों का लक्ष्य एक
पट्टमहादेवा शान्तन्ना :: 79