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________________ "तो तुम मानती हो कि तुमने खुद वह आमन्त्रण-पत्र हेगड़े को न पहुंचने देने का काम किया है, है न?" "हाँ, मुझे ऐसा करना ठीक जैचा, इसीलिए किया।" "उस हालत में यह काम खुलकर करने का आत्मबल होना चाहिए था। तुम्हें वह सही जंचा होता तो तुम अपने पति और सहोदर भाई से जरूर कहती, लेकिन तुम्हारे मन में तो यह भावना थी कि जो किया सो ठीक नहीं किया।" "ऐसा नहीं। आप लोगों से इसीलिए नहीं कहा कि मुझे शंका थी कि आप लोग मेरे द्रष्टिकोण से विचार करेंगे भी।" "हेग्गड़े परिवार आता तो तुम्हारा क्या बिगड़ता?" "वे कोई षड्यन्त्र करते।" "तुम्हारी दृष्टि में, अब भी वे षड्यन्त्र ही कर रहे हैं?" "हाँ" "ठीक है, मगर यह षड्यन्त्र तुम रोकने में किसी भी हालत में असमर्थ हो। जो षड्यन्त्र करेंगे वे ही फल भुगतेंगे, हस्तक्षेप करके तुम क्यों उसमें गड़बड़ पैदा कर अपने को कलुषित बनाओ? इस षड्यन्त्र के विषय में तुम्हारी कुछ भी भावना हो लेकिन उस आमन्त्रण-पत्र की घटना के विषय में अपनी गलती तुम्हें स्वीकार करनी ही होगी! मैंने जैसा यह वाकया समझा, प्रभु को बता दूँगा। अगर वे तुम्हें क्षमा करेंगे तो मुझे भी सन्तोष होगा। अब तुमने जो नयी बात बतायी उस पर मैंने अभी कुछ नहीं सोचा। लेकिन ऐसा हुआ होगा तो हेग्गड़े बचेंगे नहीं।" "तुम्हें नहीं लगता कि ऐसा हुआ होगा?" "कुछ भी नहीं लगता। इन राजनीतिक कुतन्त्रों के कई रूप होते हैं 1 तुम्हारे दृष्टिकोण से भी विचार करने में कोई आपत्ति नहीं, हालाँकि मेरा यह स्पष्ट विचार है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। फिर भी किसी तरह की शंका के लिए अवकाश न देकर इसकी तहकीकात करना भी मेरा कर्तव्य है। तुम्हें इसके लिए सर खपाने की जरूरत नहीं। मुझसे तुमने यह बात को, यहाँ तक ठीक है। दूसरों के सामने ये बात जाहिर नहीं कर बैठना नहीं तो परिणाम कुछ-का-कुछ हो जाएगा। अपना मुँह बन्द रखो। तुम्हारी इस विचारधारा का जरा भी पता उस वामशक्ति पण्डित को लगा तो वह तुमको चक्कर में डाल देगा। ये सभी वामन्चारी ऐसे ही लोग होते हैं। उनसे सम्पर्क मत रखो। तुम्हारी भलाई के लिए यह बात कह रहा हूँ। युवराज और युवरानीजी के लौटने पर तुम स्वयं प्रेरित होकर उनके समक्ष जाओ और अपनी गलती स्वीकार कर लो। तुम्हारे इस अपराध के लिए यह निकृष्टतम दण्ड है।" "समधिन बनने की इच्छा रखनेवाली मैं ऐसा करूँ तो क्या मेरा आत्मगौरव बचा रहेगा, भैया?" 360 :: एट्टमहादेवी शान्तला
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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