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________________ इसलिए तुम जाओ, अपने भाई के सामने स्पष्ट रूप से कहो, तुमने क्या किया। तुम्हारे भाई जैसा कहेंगे वैसा करो। मैं तुम्हारे साथ भी नहीं जाऊँगा।" "आप चलें ही।" वह नरम हो गयी थी। "मेरा न चलना ही अच्छा होगा। अब फिर अपनी अक्लमन्दी का प्रदर्शन करके उस हेग्गड़ती के प्रति अपनी खुरी भावना मत दिखाना।" "स्वयं जाकर कैसे बताऊँ?" "ओ है सो कहने में क्या दिक्कत है?" "भाई पूछे तो उत्तर देना आसान होगा। मैं ही बात छेड़कर कहूँ, यह उतना आसान नहीं।" "तो मतलब यह कि ऐसा करूँ कि वे ही पूछे, यही तुम्हारी सलाह है?" "जो मुझे आसान लगा सो सुझाया।" । "ऐसा ही हो, तुम्हारा यह अभिमान बड़ा जबरदस्त है। मैं जाकर कह दूंगा कि आपकी बहिन को भेज दूंगा, आप हो उससे पूछ लीजिए। ठीक है न?" "तो अब चलो, नाश्ता करें। बाद में मैं तुम्हारे भाई के यहाँ जाऊँगा। दोपहर के बाद तुम जाना।" चामन्चा गयी तो मरियाने सोचने लगा, दुर्भावना और स्वार्थ के शिकंजे में पड़कर इस औरत ने मेरा सिर झुकवा दिया, यह अविवेक की चरम सीमा है। बात मालूम होने पर उसके भाई क्या करेंगे सो तो मालूम नहीं लेकिन उन्हें ऐसी नीचता कभी सा नहीं होती। अब तो जैसा उसका भाग्य वैसा होगा ही, जो किया सो भुगतना ही होगा। कम-से-कम आइन्दा को होशियार रहें तो भी ठीक होगा। और वो नाश्ते के बाद अपने साले के धर चले गये। चामध्ये कुछ खाये-पीये बिना ही अपनी कोठरी में जा बैठी और सोचने लगी, यह 'सर्वतोभद्र' यन्त्र जिस दिन धारण किया उसी दिन से इस तरह की तीव्र वेदना भुगतनी पड़ रही है। इसे निकालकर कूड़े में फेंक दूं, परन्तु ऐसा करने पर कुछ-का-कुछ हो गया तो? अब इससे छूटने का साहस भी नहीं होता, और उसका तरीका भी नहीं मालूम । उधर महादण्डनायक प्रधान गंगराज के यहाँ जाने के लिए निकला, इधर दण्डनायिका बिना किसी को बताये वामशक्ति पण्डित के यहाँ पहुँची। अबकी बार उसने बड़ी होशियारी से आगे-पीछे और इर्द-गिर्द देखकर सबकी आँख बचाकर, मन मजबूत करके उसके घर में प्रवेश किया। पण्डित तभी अपना पूजा-पाठ समाप्त कर बाहर के बड़े बैठकखाने में जा रहा पट्टमहादेवी शान्तला :: 371
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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