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________________ ने शान्तला की ओर देखा। उसकी उस दृष्टि में उसे कुछ दर्द और कुछ प्रश्नार्थक भाव दिखे। उसके मन में अपराधी होने के सीखना भी बेहदेव को देखा। शान्तला के चेहरे पर मन्द हास झलक रहा था। लज्जा-भार से कुछ अवनतसी होकर उसने आगे कदम बढ़ाया। बिट्टिदेव ने उसका अनुसरण किया। रेविमय्या ने आँखें खोली तो देखा कि वह अकेला है। वहाँ से निकलते वक्त उसने देवी से फिर प्रार्थना को, "देवि, मेरा इष्टार्थ पूरा करो।" और प्रणाम कर नागियक्काजी के प्रांगण में पहुंचा। नागियक्का वल्कल-चीर धारण किये कुशासन पर दीवार से सटकर बैठी थी। उनकी एक ओर शान्तला और दूसरी ओर बिट्टिदेव बैठे थे। दोनों के कन्धों पर उस महासाध्वी के प्रेममय हाथ थे। यह दृश्य देखते ही रेविमय्या की आँखों से आनन्दाश्रु बह चले जिन्हें वह रोककर भी न रोक सका था। बुद्धरक्खित ने देखा तो कुछ घबड़ाकर पूछा, "क्यों क्या हुआ?" युवरानी ने कहा, "कुछ नहीं हुआ। बहुत आनन्द होने पर उसकी यही हालत होती है। उसका हृदय बहुत कोमल है।" "हम भी यही चाहते हैं, यहाँ जो भी आते हैं उन्हें आनन्दित होकर ही जाना चाहिए। तभी हमें इस बात का साक्ष्य मिलता है कि अभी यहाँ बोधिसत्व का प्रभाव है। महासाध्वी सहवासी नागियक्काजी को शंका थी कि युवरानोजी आएँगी या नहीं। सन्निधान के आने से वे भी खुश हैं।" बुद्धरक्खित ने कहा। "इस तरह की शंका का कारण?" "यहाँ अनेक राज्यों से बौद्ध भिक्षु आते हैं। वे बताते हैं कि उनके राज्य के राजा अपने मत पर अत्यन्त प्रेम से प्रभावित होकर अन्य-पतियों के साथ बहुत ही असहिष्णुता का व्यवहार करते हैं। सन्निधान के विचारों से अपरिचित होने के कारण यह शंका उत्पन्न होने में कोई आश्चर्य नहीं।' बुद्धरखित बोले।। "तो मतलब यह कि पोयसलवंशियों की उदार भावना से महासाध्वी नागियक्काजी अपरिचित हैं। हमारे प्रभु और महाराज की दृष्टि में कोई भेद भावना नहीं। किसी भी मत के अनुयायी हों, उनमें उन्हें कोई फरक नहीं दिखता।' युवरानी एचलदेवी ने कहा। "मत मानव-मानव के बीच में प्रेम का साधन होना चाहिए, द्वेष पैदा कर मानव को राक्षस बनाने का साधन नहीं, यही उपदेश था भगवान् बुद्ध का, जिन्होंने जगत् के लोगों का दुःख-दर्द देखा और उससे स्वयं दुःखी होकर, अपना सर्वस्व त्यागकर भी लोक जीवन को सुखमय बनाने के महान उद्देश्य से प्रकृति की गोद में आश्रय लिया। अशोक चक्रवर्ती को जयमाला के प्रेम में पड़कर अपने को विजयी समझते समय जो ध्वनि सुनाई पड़ी थी वह कोई आनन्द ध्वनि नहीं, बल्कि आहत पानवता की आर. पट्टमहादेगी शानमा : 14
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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