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________________ "जी हाँ, प्रधानजी, वे भी प्रभुजी के साथ हैं।" लाचार होकर सिंगिमय्या ने कहा। बिट्टिदेव अव अपने उत्साह को रोक नहीं सका। उसने पूछ ही लिया, "तो बड़ी रानीजी के साथ हेग्गड़ती भी आयी हैं क्या?" राजकुमार बल्लाल ने उसके अंगरखे का छोर पकड़कर धीरे से खींचा, परन्तु सवाल बिट्टिदेव के मुंह से निकल चुका था। "बड़ी रानीजी को इस यात्रा में योग्य साथ की आवश्यकता थी, इसलिए प्रभु ने जोर डाला तो हेग्गड़ती को भी आना पड़ा, अत: वे भी साथ हैं।" इतने में घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ी। पोयसलों और चालुक्यों के व्याघ्र और वराह चिह्नों से अंकित ध्वज पकड़े दो सिपाही दीख पड़े। आगे सैन्य और पीछे प्रभु अपने सफेद घोड़े पर, उनके पार्श्व में शान्तला अपने टटू पर, उसके बगल में थोड़ा पीछे घोड़े पर हेगड़े मारसिंगय्या, इनके पीछे घोड़े जुते रथ और रथों के पीछे सैनिक यूथ। राजपथ पर बाँस-बाँस की दूरी पर लगे हरे-हरे पत्तों के तोरणों में ठहर-ठहरकर भक्त प्रजा के द्वारा पहनायी मालाओं को स्वीकार करते, राजोचित वैभव से युक्त और वीरोचित साज के साथ आगे बढ़ रहे थे। किसी को यह पता न चला कि कब बिट्टिदेव शान्तला की बगल में पहुँचकर चलने लगा था। राजमहल के जंगण में फाटक पा सुमंगनियों ने आरती उतारी ! राजमहल के मुख मण्डप में युवरानी एचलदेवी और चामध्ये स्वर्ण-कलश और थाली हाथ में लिये खड़ी थीं। युवराज के चरण खुद युवरानी ने धोये, बड़ी रानीजी के चरण चामब्वे ने धोये, परन्तु हेगड़ती और उसकी बेटी को देखते ही उसका सारा उत्साह धूल में मिल गया था। आरती उतारी गयो, तब सबके राजमहल में प्रवेश करते ही एरेयंग प्रभु ने प्रमुख लोगों के साथ महाराज के दर्शन के लिए प्रस्थान किया। बड़ी रानीजी ने महाराज विक्रमादित्य को प्रणाम किया तो वे बोले, "न, न, ऐसा न करें, आप चालुक्य चक्रवर्तीजी की बड़ी रानी हैं। आखिर हम केवल मण्डलेश्वर हैं। हम ही आपको प्रणाम करते हैं।" "यह औपचारिकता चक्रवर्ती की सन्निधि में भले ही हो, अभी तो मैं आपकी पुत्री हूँ। मायके आयी हूँ।" बड़ी रानी चन्दलदेवी ने शिष्टाचार निभाया। महाराज ने शान्तला को देखा तो उसे पास बुला लिया। वह भी साष्टांग प्रणाम कर पास खड़ी हो गयी। उसके सिर पर हाथ फेरकर उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, "अम्माजी, कभी इंगितज्ञता की बात उठती है तब हम तुम्हारी याद कर लेते हैं। बलिपुर में रहते समय हमारी बड़ी रानीजी को किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं दिया न?" उत्तर दिया महारानीजी ने, 'नि:संकोच कहती हूँ कि बलिपुर में मैंने जो दिन पट्टमहादेवी शान्तला :: 247
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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