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________________ कहता तो वह समझता कि सब मनगढन्त है, और उस पर विश्वास नहीं करता। यहाँ खुद आँखों से देख रहा है। घोड़े को चलाने के उसके ढंग को देखकर वह चकित रह गया1 एक प्रहर तक सवारी कर लौटने पर समझ में आया कि रायण की बात सही है। रेविमय्या मन-ही-मन सोचने लगा-'जिसका जन्म राजमहल में होना चाहिए था वह एक साधारण हेग्गड़े के घर में क्यों हुआ?'...उस सवाल का जवाब कौन दे? वही जवाब दे सकता है जिसने इस जगत् का सृजन किया है। परन्तु, वह सिरजनहारा दिखाई दे जन्न तो। घुड़साल में घोड़ों को पहुँचाकर दोनों ने अन्दर प्रवेश किया। पिछवाड़े की ओर से अन्दर आये, वहीं बारहदरी में हेग्गड़े बैठे थे। उन्होंने पूछा, "सवारी कैसी रही?" रेविमय्या मौन खड़ा रहा। उसने समझा-शायद सवाल शान्तला से किया होगा। रेविमय्या से हेग्गड़े ने पूछा, "मैंने तुम ही से पूछा है, घोड़े ने कहीं तंग तो नहीं किया?" इतने में शान्तला ने कहा, "ये रायण से भी अच्छी तरह घोड़ा चलाते हैं।" हेगड़े ने कहा, "उन्हें वहाँ राजधानी में ऐसी शिक्षा मिलती है, बेटी।" रेविमय्या ने पूछा, "जी, आपको यह रट्ट कहाँ से मिला? यह अच्छे लक्षणों से युक्त है। इसे किसी को न दीजिएगा।" हेगड़े ने कहा, "हमारी अम्माजी बढ़ेगी नहीं ? जैसी अब है वैसी ही रहेगी?" "न, ऐसा नहीं, कुछ वस्तुएँ सौभाग्य से हमारे पास आती हैं। उन्हें हमें कभी नहीं खोना चाहिए। उसके ठिगनेपन को छोड़कर शेष सभी लक्षण राज-योग्य हैं। अगर उसकी टाँगों में धुंघरू बाँध दें और अम्माजी उसे चलावें तो उसके पैरों का लय नृत्यसा मधुर लगेगा। हेगाड़ेजी! घोड़े पर सवार अम्माजी के कान हमेशा टापों पर ही लगे रहते हैं। आप बड़े भाग्यवान् हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि आम्माजी दीर्घायु होवें और आप लोगों को आनन्द देती रहें।" फिर उसने शान्तला से कहा, "अम्माजी, कम-सेकम अब मेरी गोद में एक बार आने को राजी होंगी?" रेविमय्या के हाथ अपने-आप उसकी ओर बढ़े। शान्तला उसी तरफ देखती हुई उसकी ओर बढ़ी। रेविमय्या आनन्दविभोर हो उस नन्ही बालिका को गोद में उठाकर, "मेरी देवी आज मुझ पर प्रसन्न हैं" कहता हुआ मारे आनन्द के नाच उठा। ऐसा लगता था कि वह अपने आसपास के वातावरण को भूल हो गया है। शान्तला को उतारने के बाद मुसकराते बैठे हुए हेगड़े को देखकर उसने संकोच से सिर झुका लिया। संगीत सिखाने के लिए अध्यापक को आते देखकर उसने पिताजी से "मैं अध्यापक जी के पास जाऊँ ?" कहकर संगीत अध्यापक का अनुसरण करती हुई वहाँ से चली गयी। पट्टमहादेवी शान्तला :: 29
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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