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समझना चाहिए। गायन कला के बारे में भी वही करना चाहिए।"
"तब तक?" "ऐसे ही।" "आपके कहने के योग्य कुछ नहीं?" "मुझे कई-कई बातें सूझ सकती हैं, पर वे अगर गलत हों तो?" "अगर सही हों तो?" "यह निर्णय कौन देगा?" "मैं। इसलिए आपको जो सूझा सो कहिए।" 'न न। मुझे क्यों ? बाद को आप मुझे बातूनी का पद देंगी।"
"मुझसे, मेरे बारे में कहिए।" उसके कहने के ढंग में एक सौहार्द और आत्मीय भावना थी।
"यदि तुम दूसरों से कहोगी तो?" "नहीं, माँ की कसम।"
"फिर वहीं । मैंने पहले ही मना कर दिया था। हमारे गुरुजी ने एक बार कहा था कि किसी की कसम नहीं खानी चाहिए। उसमें भी माँ की कसम कभी नहीं। माँ को भी बच्चों की कसम कभी नहीं खानी चाहिए।"
"क्यों?"
"हम जिस बात पर माँ की कसम खाते हैं, वह पूरी तरह निभ न सके तो वह कसम शाप बन जाती है और वह शाप माँ को लगता है। जिस मां ने हमें जन्म दिया उसी की बुराई करें?"
___ "मूझे मालूम नहीं था। मेरी माँ कभी- कभी ऐसी ही कसम खाया करती है। वही अभ्यास मुझे और दीदी को हो गया है, मेरी छोटी बहन को भी।"
।' छोड़ दो। आइन्दा माँ की कसम कभी न खाना।" "नहीं, अब कभी नहीं खाऊँगी।" "हाँ, अब कहो, और किसी से नहीं कहोगी न?" "नहीं । सचमुच किसी से नहीं कहूँगी?"
"नृत्य में भंगिमा, मुद्रा, गति, भाव, सबका एक स्पष्ट अर्थ है । इनमें किसी की भी कमी हो तो कमी ही कमी लगती है और सम्पूर्ण नृत्य का प्रभाव ही कम हो जाता
''हमारे नृत्य में कौन अंग गलत हुआ था?"
"भाव की कमी थी। भावाभिव्यक्ति रस निष्पत्ति का प्रमुख साधन है। यदि इसकी कमी हो तो नृत्य यान्त्रिक सा बन जाता है। यह सजीव नहीं रहता। भाव से हो नृत्य सजीत्र बनता है।"
168 -: पट्टमहादेवो शान्तला