________________
"क्यों ? आप जैसे वीरश्रेष्ठ का पाणिग्रहण करनेवाली मुझको आपने कायर कैसे समझ लिया?"
"ऐसा नहीं, राजमहल में एक शुभकार्य सम्पन्न हुए अभी एक महीना भी पूरा नहीं हुआ है। अभी युद्ध के लिए जाने की बात पर शायद कोई स्वीकृति नहीं दे सकेगा-ऐसा लग रहा था मुझे।"
"वर्तमान प्रसंग में यह सचमुच अच्छा है। दोरसमुद्र में जो नाटक हुआ, यहाँ बैठे-बैठे उसे बार-बार स्मरण करते हुए मन को कड़वा बनाकर परेशान होने के बदले, सबको भूल-भालकर जयमाला पहनने को सिर आगे बढ़ाना अच्छा ही है न? इसमें कीर्ति तो मिलती ही है, मन को शान्ति भी प्राप्त होती है। और भरोसा रखनेवालों को मदद देने के कर्तव्य-निर्वहण का आत्म-सन्तोष भी। ये सब एक साथ प्राप्त नहीं होंगे क्या?"
"हमें तो ये सब प्राप्त होंगे ही। परन्तु यहाँ एकाकी रहकर ऊब उठेंगी तो?"
"इस विषय में प्रभु को चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। हमारे छोटे अप्पाजी ऐसा मौका ही नहीं देंगे।"
"अब तो वहां हमारा सहारा है । अप्पाजी अभी दारसमुद्र मे ठहर गये हैं। वहाँ उनका मन कब किस तरह परिवर्तित हो जाए या कर दिया जाए, कहा नहीं जा सकता।"
"यह तो सही है । अप्पाजी को वहाँ ठहराने की बात पर आप राजी ही क्यों
हुए?"
"जिस उद्देश्य से हमने सिंहासन को नकार दिया, उसी तरह से इसे भी हमने स्वीकार किया। दूसरा चारा भी न था। महाराज की अब उम्र भी बहुत हो गयी है, काफी वृद्ध हो गये हैं। वास्तव में वे नचानेवालों के हाथ की कठपुतली बन गये हैं।"
"कल राज्य ही दूसरों के हाथ में हो जाए तो?..."
"वह सम्भव नहीं। पिछले दिनों जिस-जिसने उस नाटक में भाग लिया है, उनका लक्ष्य राजद्रोह नहीं था--इतना तो निश्चित है।"
'यदि यह बात निश्चित है, तो इस नाटक का उद्देश्य क्या है-आपको मालूम रहना चाहिए न?"
"उसका कुछ-कुछ आभास तो हुआ है।" "यदि अपनी इस अर्धांगिनी को बता सकते हैं तो बताइए न?"
"हमारी अधांगिनी हमसे भी ज्यादा निपुण है। हमारा अनुमान था कि आपने पहले से ही इस बारे में कुछ अन्दाज लगा लिना होगा।"
"प्रशंसा नहीं, अब वस्तुस्थिति की जानकारी चाहिए।" "चामले की इच्छा है कि वह युवरानी को समधिन बने। इस इच्छा की पूर्ति
1 22 :: पट्टमहादेवी शान्तला