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________________ विचारों को पुष्टि देते हुए हमें उत्साहित एवं प्रेरित भी किया है। हम अपने पूज्य जन्मदाता और सबके वयोवृद्ध महाराज की सेवा में निरत रहकर उनकी चरण-सेवा करते रहनेवाले सेवक मात्र हैं। उन पूज्य के जीवित रहते और सिंहासनासीन रहते हम सिंहासन पर नहीं बैठेंगे। इस विषय पर विचार करने की बात प्रधान जी ने भी कही। इसमें विचार करने जैसी कोई बात ही नहीं है; यह मेरी भावना है। विचार करने जैसी कोई बात हो तो वे ही जानें। और फिर महाराज से मेरी एक प्रार्थना है। सन्निधान के रहते उन्हीं के समक्ष हमारा सिंहासनारूढ़ होना हमारे इस राजवंश पर कलंक का टीका लगाना है। कोई हमें ऐसा काम करने के लिए न उकसाए । यह अविनय नहीं, प्रार्थना है। हम पर इतना अनुग्रह करें।" कहकर प्रभु एरेयंग ने शुककर प्रणाम किया। तुरन्त मरियाने दण्डनायक के मुंह से निकला, "युवराज ने हमारे मन की ही बात कही।" ____ गंगराज बोले, "अपने वंश की प्रतिष्ठा के अनुरूप ही युवराज ने व्यवहार किया है। जैसे हम महाराजा के प्रति निष्ठा रखते हैं, युवराज के प्रति भी वही निष्ठा है। हम व्यर्थ ही दुविधा में पड़े रहे। युवराज ने उदारता से हमें उस दुविधा से पार लगा दिया।" मरिवाने दण्डनायक ने फिर कहा, "हमने उसी वक्त अपना अभिमत नहीं दिया; इसका कारण इतना ही था कि युवराज स्वयं अपनी राय बताएं या सम्मति दें-यही हम चाहते थे। इस विषय में युवराज को अन्यथा सोचने या सन्देह करने की कोई जरूरत नहीं है, न ऐसा कोई कारण ही है जिससे वे शंकित हों। हम पोयसल वंश के ऋणी हैं। आपने इस वंश की परम्परा के अनुरूप ही किया है और हमारी भावना के हो अनुरूप समस्या हल हो गयी। इससे हम सभी को बहुत सन्तोष हुआ है। जैसा प्रधान जो ने कहा, हम किसी भेदभाव के बिना पोय्सल वंश के प्रति निष्ठा रखनेवाले हैं, इसमें किसी तरह की शंका नहीं। इस बात पर जोर देकर दुबारा यह विनती है।" महाराजा विनयादित्य कुछ अधिक चिन्तित दिखे, "मैंने चाहा क्या? आप लोगों ने किया क्या? क्या आप लोग चाहते हैं कि हमें मुक्ति न मिले ? यहाँ जो कुछ हुआ उसे देखने से लगता है कि आप सबने मिलकर, एक होकर, हमें अपने भाग्य पर छोड़ दिया। हमने आप लोगों से विनती की कि युवराज को समझा-बुझा लें और हमें इस दायित्व से मुक्त करें। पर आप लोगों ने हमारी इच्छा के विरुद्ध निश्चय किया है। हमें सिंहासन पर ही रहने देकर आप लोगों ने यह समझ लिया होगा कि हम पर बड़ा उपकार किया। हम ऐसा मानने को तैयार नहीं। आप लोगों का यह व्यवहार परम्परागत क्रम के विरुद्ध न होने पर भी, हमारे कहने के बाद, हमारे विचारों की उस पृष्ठभूमि से देखने पर यह निश्चय ठीक है ऐसा तो हमें नहीं लगता । यह गोष्टी बिलकुल व्यर्थ साबित हो गयी। इसकी जरूरत ही क्या थी?" महाराज के कहने के दंग में असमाधान स्पष्ट लक्षित हो रहा था। पट्टमहादेवी शासला :: I
SR No.090349
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size8 MB
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