________________
जरइ ण मरइ ण संभवइ जो परि' को वि अणंतु। तिहुवणसामिउ णाणमउ सो सिवदेउ णिभंतु ॥55॥
शब्दार्थ-जरइ-जीर्ण (जूना) होता; ण मरइ-न मरता है; ण संभवइ-न उत्पन्न होता है; जो; परि-परे; को वि-कोई; अणंतु-अनन्त; तिहुवणसामिउ-त्रिभुवन के स्वामी; णाणमउ-ज्ञानमय; सो-वह; सिवदेउ-शिवदेव; णिभंतु-निर्धान्त (है)।
___ अर्थ-जो न जूना-पुराना होता है, न मरता है और न उत्पन्न होता है, जो सबसे परे कोई अनन्त ज्ञानमय त्रिभुवन का स्वामी है, वह निर्धान्त शिवदेव है। (अर्थात् त्रैकालिक ध्रुव, एक, अखण्ड, निष्क्रिय चैतन्य ज्योति मात्र परमात्म रूप है।)
निश्चय नय की दृष्टि में शक्ति रूप परमात्मा का नाम शिव है। वह सदा शिव अर्थात् मुक्त स्वरूप है, इसलिए परमात्मा है। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में वीतराग सहज परमानन्द रूप सुख 'शिव' शब्द का वाच्य है। 'शिव' का अर्थ परम कल्याण भी है। लेकिन ये सभी वाचक शब्द निर्वाण या मुक्ति अर्थ के प्रतिपादक हैं। कहा भी है“शिवं परमसौख्यं परम कल्याणं निर्वाणं चोच्यते।"
-समाधिशतक टीका 2, 25 आचार्य गुणभद्र कहते हैं
अजातोऽनश्वरोऽमूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः। देह मात्रो मलैर्मुक्तो गत्वोदूर्ध्वमचलः प्रभुः ॥
-आत्मानुशासन, श्लोक 266 अर्थात्-यह आत्मा कभी पैदा नहीं हुआ इससे अजन्मा है, कभी नाश नहीं होगा इससे अविनाशी है, अमूर्तिक है, अपने स्वभाव का कर्ता, अपने सहज सुख का भोक्ता है, परम सुखी है, ज्ञानी है, शरीर मात्र आकार का धारक है, कर्म रूपी मलों से रहित, लोक के अग्र भाग में ठहरने वाला, अचल, परमात्मा (प्रभु, शिव)
1. अ, पर; द, ब, स परु; क परि; 2. अ तिहूअण सामी; क, द, ब, स तिहुवणसामिउ; 3. अ णाणमउं; क, द, ब, स णाणमउ; 4. अ, क, स सिउदेउ; द सिवदेउ; ब सिवदेव।
पाहुडदोहा : 79