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________________ सुण्णं ण होइ सुण्णं दीसइ सुण्णं च तिहुवणे सुण्णं। अवहरइ पावपुण्णं सुण्णसहावे' गओ' अप्पा ॥213॥ शब्दार्थ-सुण्णं-अभाव (का नाम); ण होइ-नहीं होता (है); सुण्णं-शून्य; दीसइ-दिखाई देता है; सुण्णं-शून्य (वाद); च-पादपूरक; तिहुवणे-तीन लोकों में; सुण्णं-पाप-पुण्य को; सुण्णसहावे-निर्विकल्प स्वभाव में; गओ-पहुँचा हुआ; अप्पा-आत्मा। अर्थ-सब द्रव्यों के अभाव का नाम शन्य नहीं है। यह कहा जाता है कि (शून्यवाद में) वह सामान्य और विशेष भावों से रहित है, किन्तु जो पाप-पुण्य से रहित निर्विकल्प स्वभावी आत्मा है, वह शून्य है। भावार्थ-मुनि योगीन्द्रदेव ने 'शून्य' पद अर्थात् निर्विकल्प ध्यानी का वर्णन अ. 2 दो. 159 में किया है। टीकाकार ब्रह्मदेवसूरि ने 'शून्य' का अर्थ 'विकल्परहित' किया है। उनके ही शब्दों में 'सुण्णउं शुभाशुभमनोवचनकाय व्यापारैः शून्यं पउं वीतरागपरमानन्दैकसुखामृतस्वादरूपा स्वसंवित्तिमयी त्रिगुप्तिसमाधिबलेन ध्यायतां वलि वलि जोइयडाह' अर्थात् शुभ-अशुभ मन, वचन, काय के व्यापार से रहित जो वीतराग परम आनन्दमयी सुखामृत रस का स्वाद वही उसका स्वरूप है, ऐसी आत्मज्ञानमयी परमकला से भरपूर जो ब्रह्मपद (शून्यपद) निज शुद्धात्मस्वरूप उसको ध्याना राग रहित तीन गुप्ति रूप समाधि के बल से ध्याते हैं, उन ध्यानी योगियों की मैं बार-बार बलिहारी जाता हूँ। स्वसंवेदनज्ञान के बल से जहाँ आत्मानुभव के काल में पुण्य-पाप से रहित निर्विकल्प ज्ञानगम्य आत्मानुभूति की अवस्था होती है, उसे ही 'शून्य' कहा गया है। दूसरे शब्दों में वह शुद्धोपयोग रूप शुद्ध तथा वीतराग भाव है। वास्तव में आत्मा का शून्य स्वभाव है। आत्मा के स्वभाव में पुण्य-पाप, संकल्प-विकल्प तथा इच्छाएँ नहीं हैं। वह वीतराग, निर्विकल्प स्वभावी है। इसलिए यहाँ पर 'शून्य' का अर्थ विकल्पों से रहित (शून्य) लेना चाहिए। एक प्रकार से समाधि के साधक योगियों के वह तीन गुप्तिरूप समाधि के बल से ध्यान अवस्था में प्रकट होता है। मुनिश्री योगीन्द्रदेव भी यह भावना भाते हैं कि जो शुभाशुभ विकल्पों से रहित निर्विकल्प (शून्य) ध्यान ध्याते हैं, उन योगियों की मैं बलिहारी जाता हूँ। उन योगियों के एकीभाव रूप समरसी भाव का परिणमन होता है। उस समय ज्ञानादि गुण और गुणी अर्थात् निज शुद्धात्म द्रव्य दोनों एकाकार हो जाते हैं। अतएव निर्विकल्प, वीतरागी निज शुद्धात्मा 'शून्य' या 'ब्रह्म' का वाचक है। वास्तव में 'विकल्पों के अभाव' का नाम शून्य है। क्योंकि आत्मा वीतराग निर्विकल्प स्वरूप है। 1. अ, क, ब, स सुण्णसहावे; द सुण्णसहावेण; 2. अ गउ; क, द, स गओ; ब ठाउ। .. पाहुडदोहा : 251
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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