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रामसीहु-रामसिंह; मुणि-मुनि; इम-इस प्रकार; भणइ-कहता है (कहते हैं); सिवपुरि-शिवपुरी, मोक्ष (को); पावहि-पाते हो; जेण-जिससे।
अर्थ-हे जीव! एकाग्र मन से बारह भावनाओं की भावना कर। इससे मुक्ति की प्राप्ति होती है-ऐसा रामसिंह मुनि कहते हैं। ..
भावार्थ-जो बार-बार भाई जाती है, उसे भावना कहते हैं। भावनाएँ बारह कही गई हैं। तीर्थंकर भी इन बारह भावनाओं का चिन्तन कर संसार, शरीर, और विषय-भोगों से विरक्त हुए थे। साधु-सन्त वैराग्य में स्थिर रहने हेतु प्रतिदिन भावना भाते हैं। अतः ये भावनाएँ वैराग्य की माता है। सभी जीवों का ये हित करने वाली हैं। राग की अग्नि में झुलसे हुए जीवों के लिए ये शीतल कमलवन के समान हैं। साधु, मुनियों के लिए तो बारह भावनाओं का चिन्तन परम आवश्यक है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि परीषह आने पर भाव की शुद्धता हेतु बारह भावनाओं का बार-बार चिन्तन करना चाहिए। उनके ही शब्दों में
भावहि अणुवेक्खाओ अवरे पणवीसभावणा भावि।
भावरहितएण किं पुण बाहिरलिंगेण कायव्वं ॥भावपाहुड, गा. 96 अर्थात्-हे मुने! तू अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक बोधिदुर्लभ और धर्म इनको तथा अन्य पच्चीस भावनाओं को भाना एक बड़ा उपाय है। इनका बारम्बार चिन्तन करने से कष्ट में परिणाम नहीं बिगड़ते हैं, इसलिए यह उपदेश है। ___ यथार्थ में पदार्थों के स्वरूप का वस्तुतः चिन्तन करना भावशुद्धि का महान् उपाय है। अनित्य भावना के द्वारा वस्तु के नित्य स्वरूप का विचार किया जाता है। उदाहरण के लिए, ऐसी भावना भानी चाहिए कि जो यह शरीर है सो जल में बुलबुले के समान तथा धन-लक्ष्मी इन्द्रजाल की रचना सदृश एवं इन्द्रियों के विषयों का सुख सन्ध्याकालीन मेघ की लाली के समान विनाशी है। इसलिए इनके वियोग में शोक करना व्यर्थ है। जो प्राणी देह धारण करते हैं, उनके दुःख और मरण अवश्यम्भावी है। इस कारण दुःख और मरण का भय छोड़कर ऐसे उपाय का विचार करो, जिससे शरीर के धारण करने का ही अभाव हो जाए। क्योंकि यह नियम है कि जिसका जन्म है, उसका मरण निश्चित है। फिर, होनहार कभी टलती नहीं है। जिस समय शरीर का छूटना निश्चित है, उस मरण को और उस समय व परिस्थिति
को टालने के लिए कोई भी इन्द्र या जिनेन्द्र समर्थ नहीं हैं। (द्रष्टव्य है रत्नकरण्डश्रावकाचार की पं. सदासुखदास की टीका, पृ. 368)
250 : पाहुडदोहा