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________________ करता है । यह सिलसिला अनादि काल से चल रहा है। क्योंकि इच्छाएँ अनन्त हैं, वे कभी पूर्ण नहीं होतीं । इच्छा पूरी हुए बिना आकुलता नहीं मिटती और निराकुल हुए बिना सुख नहीं मिलता। इसलिए विषय - सेवन दुःख का ही कारण है। इसमें प्रत्येक समय भावों में तरह-तरह के घोर पाप होते हैं, इसलिए यह नरकगति में ले जाने का कारण है। कुहिएण पूरिएण य छिद्देण य खारमुत्तगंधेण' । संताविज्जइ' लोओ' जह सुणहो' चम्मखंडेण ॥ 196 ॥ शब्दार्थ - कुहिएण- कुत्सित से पूरिएण-पूरित, भरा ( होने ) से; य - और; छिद्देण - छिद्र, छेद से; खारमुत्तगंधेण-क्षार ( युक्त) मूत्र की गन्ध से; संताविज्जइ–सन्ताप देता है; लोओ-लोक को; जह-यथा; सुणहो- श्वान को; चम्मखंडेण - चमड़े के टुकड़े से । अर्थ- क्षारयुक्त मूत्र की गन्ध से पूरित तथा घृणित छेद लोक को सन्तापित करता है; जैसे चमड़े का टुकड़ा कुत्ते को पीड़ित करता है । भावार्थ- पं. राजमल्लजी कहते हैं कि इन्द्रियों के विषयों में तृष्णा रखने वाले को भीषण अन्तर्दाह होता है । क्योंकि अन्तर्दाह हुए बिना उन जीवों की विषयों में रति कैसे हो सकती है ? - पंचाध्यायी, भा. 2, 255 आचार्यै कुन्दकुन्द का कथन है कि संसार में इन्द्रियजन्य जितना सुख है, वह सब इस आत्मा को तीव्र दुःख देने वाला है । इस प्रकार जो जीव इन्द्रियजन्य विषय - सुखों के स्वरूप का चिन्तवन नहीं करता वह बहिरात्मा है । ( रयणसार, 136 ) आचार्य कुन्दकुन्द यह भी कहते हैं कि पुरुष घी से भरे हुए घड़े के समान है, स्त्री जलती हुई आग के समान है। इस कारण अनेक पुरुष स्त्री के संयोग से नष्ट हो चुके हैं । (मूलाचार, गा. 100 ) वास्तव में इन्द्रिय-भोग का सुख बिजली के चमत्कार के समान चंचल है। वह मात्र तृष्णा रूपी रोग को बढ़ाने में कारण है । किन्तु तृष्णा की वृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है, जिससे प्राणी सदा दुःखी रहता है। आचार्य समझाते हुए कहते हैं- जैसे कुत्ता सूखी हुई हड्डी को चबाता हुआ उससे रस प्राप्त नहीं करता है, किन्तु उस हड्डी की नोंक से उसका तलवा कट जाता है, जिससे रुधिर निकलता है तो उस खून को पीता हुआ उसे हड्डी से निकला हुआ मानकर सुखी होने की कल्पना करता है। इसी प्रकार स्त्री के साथ रमण करता हुआ कामी पुरुष वास्तविक सुख 1. अ खारमूतेण; क, द, ब, स खारमुत्तगंधेण; 2. अ, क, द, स संताविज्ज्इ; ब संत्ताबिजइ; 3. अ, ब लोउ; क, द, स लोओ; 4. अ सुणउ; क, द, ब, स सुणहो । दोहा : 231
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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