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विसया सेवइ जो वि परु' बहुला पाउ करे | गच्छइ णरयह? पाहुणउ कम्मु ' सहाउ' लए ' ॥195॥
शब्दार्थ-विसया - (इन्द्रिय) विषयों (का); सेवइ-सेवन करता है; जो वि - और जो; परु - दूसरा; बहुला - बहुत - सा; पाउ - पाव; करेइ - करता है; गच्छइ–जाता है; णरयहं—नरक का पाहुणउ - पाहुना, मेहमान ( बनता है); कम्मु-कर्म (की); सहाउ - सहायता; लएइ - लेता है ।
अर्थ - जो विषयों का सेवन करके बहुत पाप करता है, वह कर्म की सहायता से नरक का पाहुना बनकर वहाँ जाता है।
भावार्थ- आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
“विषयों में आसक्त जीव नरक में अत्यन्त वेदना पाते हैं, तिर्यंचों और मनुष्यों में दुःखों को भोगते हैं और देवों में भी उत्पन्न हों, तो वहाँ भी दुर्भाग्य प्राप्त करते हैं, नीच देव होते हैं । इस प्रकार चारों गतियों में दुःख ही पाते हैं ।”
आचार्यों ने तो यहाँ तक कहा है कि विष खाने से
(शीलपाहुड, गा. 23) केवल इस जन्म में ही मरण होगा, किन्तु विषयों के सेवन से जन्म-जन्मान्तरों में तरह-तरह के दुःख प्राप्त होते हैं। पं. बनारसीदास के शब्दों में
जो मन विषै- कषाय में, वरते चंचल सोइ ।
जो मन ध्यान विचार सों, रुके सु अविचल होइ ॥
समयसारनाटक, बन्धद्वार, 52 अर्थात्-जो मन विषय-कषाय में लगा रहता है, वह चंचल रहता है और जो आत्मा के शुद्धस्वरूप के चिन्तवन में लगा रहता है, वह स्थिर हो जाता है ।
विषय-सेवन को 'भावदीपिका' में अनन्तानुबन्धी का रति कषाय का भाव कहा गया है। पं. दीपचन्द कासलीवाल के शब्दों में
“बहुरि सप्त व्यसननि विषै अति आसक्त होय सेवना । पंच इन्द्रियन के विषयनि विषै बहुत आसक्त रहना । पाँच इन्द्रियन के न्याय मार्ग के विषै भी धर्म, अर्थ, पुरुषार्थ बिगाड़ अति आसक्त होय सेवना । धर्म विषै भी विषय - कषाय पोषना, इत्यादि अनन्तानुबन्धी का रति कषाय भाव जानना । " ( भावदीपिका, पृ. 59 ) विषय - सेवन करने वाला एक विषय को छोड़कर अन्य विषय का ग्रहण करता है। एक विषय का सेवन करने पर इच्छा नहीं मिटती है । इसलिए अन्य विषय का ग्रहण
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1. अ, क, ब, पर; द, स परु; 2. अ, ब णरयह; क, द, स णरयह; 3. अ, क, द, स कम्मुः ब कम्म; 4. अ, क सहाइ; द, स सहाउ; ब पहाए; 5. अ, क, द, स लएइ; ब लयइ ।
230 : पाहु